रूप रुपहले पंख पसारे
सूरज उतरा नदी किनारे .
बिखरे शंख सीपियाँ चुनने
धूप का झोला बगल दबा रे.
हवा उतर आई पेड़ों से
सर सर सर सर गली बुहारे .
नदिया ने बाहें फैलादीं ,
जल में सूरज एक उगा रे .
लहरों को मुट्ठी में भरने ,
नटखट लहरों बीच चला रे .
चचंल लहरें हाथ न आए
कभी यहाँ तो कभी वहाँ रे .
नटखट लहरें वहीं छोड़कर
धूप सुखाली है निचोड़कर .
गीले तट फिर पाँव जमाए
रेत घरोंदे मिटा बनाए .
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९ ०२-२०२३) को 'एक कोना हमेशा बसंत होगा' (चर्चा-अंक -४६४०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत आभार अनीता जी
जवाब देंहटाएंअति सुंदर अभिव्यक्ति दीदी।
जवाब देंहटाएंसादर।
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० फरवरी २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति| हवा होना चाहिए शायद (हव उतर आई पेड़ों से)
जवाब देंहटाएंजी सही कहा. मात्रा छूट गयी. धन्यवाद. ठीक कर देती हूं.
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी .
हटाएंख़ूबसूरत बाल रचना
जवाब देंहटाएंरचना पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए आपका बहुत आभार
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