सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

आए दिवाली दस बार

 “हे भगवान , यह दिवाली हर साल क्यों आजाती है ? भले ही होली साल में दो बार आजाए लेकिन दिवाली तो एक बार भी नही आए ।”—--बुँदकी एक कोने में कान बन्द करके बैठी बड़बड़ा रही थी ।

चारों ओर दीपावली की धूमधाम थी. बाहर धड़ाधड़ पटाखे फोड़े जा रहे थे । उस समय वह ज़रूर सोच रही होगी कि क्या होना चाहिये और क्या नही होना चाहिये  , अगर यह फैसला उसके हाथ में हो तो वह सबसे पहले पटाखे बनाने वाली फैक्ट्रियाँ बन्द करवा दे । खुशी जाहिर करने का यह एकदम बर्बर तरीका है । अरे, खुशी मनानी है तो फुलझड़ियाँ चलाओ , अनार जलाओ । गाओ ,नाचो । यह क्या चटाक् पटाक् ..धूम-धड़ाम...। मानो गुस्साए बादल गरज रहे हों , धरती फट गई हो या कोई मकान गिरा हो । मानो त्यौहार नही मना रहे बल्कि किसी दुश्मन को मार गिराने के लिये किसी मोर्चें पर खडे हों । क्या ये पटाखे बदला ,युद्ध और खून-खराबे की याद नही दिलाते ?

दीपावली का आना बुँदकी के लिये आफत की बारिश होना है । उसे जितना डर लड़ी पटाखों से लगता है उतना तो बिना होमवर्क पूरा किये ही स्कूल जाने से भी नही लगता । दशहरा-उत्सव बीतते बीतते दूसरे बच्चे तो खील-खिलौनों ,नए कपड़ों के इन्तजार में खुशी-खुशी घर की सफाई और साज-सज्जा में बड़ों का हाथ बँटाते हैं ,उनके सम्हाल कर रखे पिस्तौल तमंचे निकल आते है । और जहाँ मौका मिला फटाक् से चला देते है लेकिन बुँदकी की तो शामत ही आजाती है । उसके सामने एक ही सवाल होता है ,एक ही काम होता है कि पटाखों की कनफोड़ आवाज से वह खुद को कैसे बचाए । वह बस सुन भर ले कि पटाखा चलने वाला है वह झट् से कान बन्द कर लेती है । फिर चाहे खाना खा रही हो और हाथ सब्जी या खीर से सने हों । यहाँ तक कि उसके हाथों में दूध का बर्तन होता और गली में पटाखा चलाने की तैयारी हो रही हो तो बर्तन को कही भी पटककर कान बन्द कर लेगी और आँख बन्द कर पटाखा फूटने का इन्तजार करेगी या फिर जितना दौड़ सकती है दौड़ने लगेगी ताकि वह कनफोड़ आवाज कानों तक पहुँचते पहुँचते हल्की होजाए ।

एक दिन तो यह हुआ कि वह चबूतरा पर खडी थी । उसकी गोद में नन्हा गत्तू था । तभी उसने देखा कि मंगल एक पटाखे को चिनगारी देने जा रहा है । बस उसने गत्तू को चबूतरा पर ही छोड दिया ताकि दोनों हाथों को कान बन्द करने के लिये आजाद कर सके । जब तक पटाखा फूटकर धमाका हो नही गया उसने गत्तू की भी परवाह नही की । वह नन्हा बच्चा लगातार रोता रहा । हाँ बाद में गत्तू को छाती से चिपकाए खुद भी रोती रही । दीपावली के पाँच दिनों में वह या तो घर से निकलती नहीं है या कानों में उँगली डाले रहती है ।

"इतनी बड़ी होकर भी डरती है । भला ऐसा भी क्या डर ?"--सब हँसते हैं पर उसे परवाह नही । धमाकों से वह इतनी डरती है कि उसे न किसी बच्चे के जन्म की खुशी होती है न किसी बरात के सजने की । दोनों अवसरों पर भी लोग बम-पटाखे फोड़ने का बहाना ढूँढ़ लेते हैं ।

नीटू चिंटू और खलबल हँसते हैं-- "देखो जरा एक डरपोक लड़की को । ताड़ सी लम्बी हो रही है और उन पटाखों से डरती है जिन्हें बित्ते भर के बच्चे चलाते हैं । ऐसे कौन डरता है ?”

“ चिड़ियाँ डरती हैं । देखते नही कैसे उड़ जातीं हैं । क्या उनका डरना कोई मायने नही रखता ?" ---बुँदकी की बात पर बच्चे और जोर से हँसते हैं ।

"हो..हो...हो...ठीक है फिर हम तुम्हें चिड़िया दीदी कहेंगे । और चुग्गा डाल दिया करेंगे । बुँदकी दीदी डरपोक चिड़िया....।"

कभी-कभी वे बुंदकी को चिढ़ाने झूठी खबर दे देते हैं---

"अरे दीदी ,बाहर नीटू सुतली बम चला रहा है सावधान..।" बस बुँदकी सारे काम छोड़ कर कान बन्द कर लेती है । 

किट्टू तो बुँदकी को सुनाने के लिये ही जोर से कहता है ---“पापा इस बार ज्यादा तेज धमाके वाले पटाखे लाना । चिटपिट में मजा नही आता ।

बुँदकी बहुत छोटी थी तभी से पटाखों से डरती रही है । इसी डर में जीते-जीते अब वह चौदह साल की होगई है । दिवाली के आने से अब भी उतनी ही नाराज रहती है । न उसे मिठाइयाँ लुभाती हैं न ही नए कपड़े । उस पर भी किसी को उसकी परवाह नहीं , यह मलाल अलग । पापा खूब प्रलोभन दे चुके हैं कि अगर बुँदकी एक भी पटाखा चला सकी तो जो माँगेगी वह दिलाएंगे । खूब सारे बढ़िया कपड़े और खिलौने भी मिलेंगे पर ये प्रलोभन बुँदकी को ज़रा भी नहीं डिगा पाए ।

इस बार भी सब कुछ वैसा ही था । रंग--रोगन से घर--आँगन चमचमा रहे थे । बाजार में खूब चहल-पहल थी । घरों में खील बतासे रुई शक्कर के खिलौने और सबके लिये नए कपड़े खरीदे गए थे । पूजा के लिये चाँदी का सिक्का पान-सुपारी फूल मिठाइयाँ ,सब कुछ तैयार था । घर के सारे बच्चे खुशी से उछल कूद रहे थे । बड़े--बूढ़े बच्चे सब सज धज कर उल्लास के साथ दीपावली की तैयारी कर रहे थे । उस समय भी जब सब किसी न किसी काम में लगे थे , बुँदकी अकेली कमरे में बैठी थी । उसके कान बाहर लगे थे । हर धमाके पर उसके सीने में धड़धड़ाहट सी होती थी । सदा की तरह ही उसके लिये न तो नए कपडों में कोई आकर्षण था न ही मिठाइयों में कोई स्वाद । 

इस बार कुछ नया था तो वह यह था कि इस बार बच्चों के किशोर भैया आगए थे । किशोर बुँदकी की बुआ का लड़का है जो हैदराबाद में इंजीनियर है । वह हैदराबाद से ढेर सारे पटाखे व मिठाइयाँ लाया था ।

"भैया पटाखों को तो तुम किसी तालाब में फेंक आओ ,नही तो बुँदकी दीदी तुम्हें भी कभी माफ नही करेंगी ।-"-छुटकू ने किशोर को पूरी बात बतादी ।

"चलो इसी बात पर पटाखे चलाना कैंसल ..केवल रोशनी वाली आतिशबाजी चलेगी । ठीक है न बुन्दू ।"--किशोर ने ।

"हाँ और नहीं तो क्या । पटाखों से प्रदूषण भी तो होता है । केवल रोशनी चलाओ वह ठीक है ।" किशोर बुँदकी की बात पर मन ही मन मुस्कराया –-'प्रदूषण तो रोशनी वाले पटाखों से भी होता है बुन्दू । पर यहाँ बात प्रदूषण या पटाखों की नहीं बात मन में बैठे डर की है, से दूर करना होगा ।' बोला –-"बिल्कुल सही कहा । मैं तो भई बुँदकी के साथ हूँ ।"  

शाम को खिड़की में कान बन्द किये बैठी बुँदकी देख रही थी कि घर के सभी लोग सिर्फ अनार ,चकरी और फुलझड़ियाँ चला रहे हैं । पापा चाचा माँ बुआ ..सभी उसे बुला रहे थे । बुँदकी  को यकीन हुआ और वह बेफिक्र होकर और फुलझड़ी जलाने लगी । फिर अनार चलाया । रेलगाड़ी चलाई । रंग-बिरंगे झाड़ चलाए । वह बहुत खुश थी ।

तभी पीछे से छुटकू ने चिटपिटी चलादी । बुँदकी ने जैसे कुछ सुना ही नही ।

कुछ ही देर बाद नीटू ने लडियों के पूरे पत्ते में चिनगारी लगादी । तड़..तड़..तड़..तड़..एक एक कर सारी लड़ियाँ फूटने लगीं । बुँदकी चौंक पड़ी ।

"तुमने तो कहा था कि पटाखे नहीं चलाएंगे !" 

" अरे यह तो गलती से हुआ दीदी , लेकिन यह पटाखे थोड़ी है ।" छुटकू ने कहा --"पटाखा तो देखो इसे कहते हैं ,कहते हुए उसने दीवार पर एक पटाखा दे मारा । एक आवाज के साथ धुँआ उठा । बुँदकी ने कुछ नाराज होकर कहा---"तुम लोग मेरे साथ धोखा कर रहे हो ।"

"अरे पता नहीं कैसे हाथ से छूटकर दीवार से जा लगा बदमाश ।" छुटकू ने बुँदकी को सफाई दी इतने में खलबल ने कहते हुए खलबल ने एक और पटाखा फोड़ दिया । बुँदकी पैर पटककर जाने लगी तो किशोर ने रोका ---“क्या हुआ ? बुँदकी सच बताना क्या तुम्हें डर लगा ?” किशोर ने पूछा ।  बुँदकी कुछ कहते-कहते रुक गई ।

“हम जानते हैं कि कुछ नही हुआ । होगा भी नही । डर तो तभी तक है जब तक हम उससे भागते हैं । अगर डटकर मुकाबला करो वह खुद ही भाग जाएगा । यही सोचकर तुम खुद एक पटाखा फोड़ो दीवार ,पर फिर देखो कि डर खुद ही कैसे भाग जाता है..। तुम तो एक बहादुर लड़की हो । नही ?"

बुँदकी ने कुछ डरते हुए आँखें बन्द कर एक पटाखा धीरे से दीवार पर मारा ।

"अरे दीदी दीवार को लगेगी नही । जरा जोर से मारिये न । लगता है आपके हाथों में ताकत ही नही है ।" खलबल ने उकसाया तो बुँदकी ने पूरे जोर से पटाखा फेंका । एक तेज धमाके के साथ पटाखा फूट गया । बुँदकी को लगा कि यह काम उतना बुरा और डरावना नही है ।

 उसने दूसरा चलाया फिर तीसरा, चौथा ...। फिर तो दीपावली के बाकी दिन उसने खूब सारे ,सुतली बस जैसे पटाखे भी चलाए बिना डरे ।

अब बुँदकी हुलसकर सबसे कहती है --"दिवाली साल में एक बार क्यों ,दस बार आए..न.।"