सोमवार, 27 दिसंबर 2021

एक पतंग के कारण


सूरज मन में पतंगों की जितनी रंगीन और मीठी कल्पनाएं संजोये रहता था , उसके पिता उतनी ही कड़वाहट के साथ पतंग उड़ाने वाले लड़कों की आलोचना किया करते थे .कहते थे कि यह निरे उजड्ड और बैठे-ठाले लोगों का काम है . यही नहीं वे पतंगबाज लड़कों की पढ़ाई का भविष्य निन्यानवे प्रतिशत अंधकार में डूबा हुआ मानते थे .

हमारा सूरज ऐसे फालतू शौक नहीं पालता . उसे अच्छा विद्यार्थी बनना है .”-–वे अक्सर अपने आपसे भी कहते थे और लोगों से भी कहा करते थे . पिता के मुँह से यह सब सुनकर सूरज अपनी पतंग-विषयक इच्छा को दबा देता था . पिता की नजरों में अच्छा बच्चा बनने का दबाब जो था लेकिन जैसा कि होता है कि किसी इच्छा को दबाओ तो वह और प्रबल होजाती है ,सूरज के मन में पतंग का मोह बढ़ता जा रहा था .

एक दिन आसमान में लहराती एक रंग-बिरंगी पतंग कटकर उसकी छत से लगे बरगद की टहनियों में आकर अटक गई तो उसने जैसे सूरज की इच्छा को बल दे दिया .

पापा मुफ्त में मिली पतंग के लिये तो मना नहीं करेंगे . फिर पापा को बताना क्या जरूरी है .विशू अपने घरवालों से छुपकर मोरपंख ढूँढ़ने जाता है … डम्पी पापा से छुपकर पिल्लों को बिस्किट खिलाता है .रज्जी डाकबँगला से कई बार गुलाब के फूल लाया है तो फिर वह छोटी सी बात नहीं छुपा सकता क्या ? वह खरीदकर तो पतंग लाया नहीं है . वह खुद उसके पास आई है तो उसकी क्या गलती ?’--उसने खुद को समझाया और पतंग को छत पर एक पाट के पीछे छुपा दिया . तभी शेरू आगया . पतंग उसी की थी .

शेरू सूरज का पड़ोसी है और कई बातों में सूरज से बहुत आगे है . अपने मम्मी पापा की तरफ से उसे हर तरह की छूट है . वह कहीं भी खेलने जा सकता है . नदी में घंटों तैर सकता है . जब तक चाहे साइकिल चला सकता है और वक्त पड़े पर एक तमाचे का जबाब दो तमाचों से दे सकता है . घरवालों का कोई प्रतिबन्ध नहीं है उसपर . जबकि सूरज पर पापा की कड़ी नजर रहती है. वे उसे हर बात पर टोकते ही रहते हैं . किसी से झगड़ा होजाए तो पापा गलती न होने पर भी सूरज को ही डाँटते हैं ..

सूरज को यकीन है कि पापा-मम्मी दोनों ही उसके पक्ष में नहीं बोलने वाले . शेरू को पतंग दिलवा कर ही मानेंगे. और यही हुआ . मम्मी ने कहा ---पतंग तुम्हारे पास हो तो बेटा दे दो . तुम क्या करोगे उसका ? पापा तुम्हारे लिये कितनी सारी चीजें लाते रहते है .

कितनी का क्या मतलब ?”-–सूरज के अन्दर एक उबाल सा उठा--–उसे यही पतंग चाहिये , अपनी छत पर आई हुई .वह शेरू से छुड़ाकर तो नहीं लाया . इस तरह शेरू को पतंग मिलती तो क्या वह लौटा देता . मम्मी ने बिना जाने समझे ही कह दिया दे दो बेटा ..पर बेटा नही देगा तो नहीं देगा...करो जो चाहो ..”---सूरज यही कहने वाला था कि उसे ध्यान आया कि सच्चाई और वीरता की शान में राजपूतराजा जान तक दे डालते थे . पर विदेशियों ने शब्दों की हेराफेरी से ही कितने ही देशों पर कब्जा कर लिया था .क्या वह जरा सी पतंग पर कब्जा नहीं कर सकता ? सो अनजान बनकर बोला--

कौनसी पतंग मम्मी ? मैंने तो कोई पतंग नहीं देखी ..मुझे पतंग पसन्द भी नहीं ..

माँ को सूरज की बात पर यकीन होगया .वह कई बार सच बोलने का प्रमाण तो दे ही चुका था .एक बार उसने मिठाई के डिब्बे से लड्डू निकालकर खाने की बात स्वीकार की थी .जबकि माँ को रिंकी और संजू पर शक था .नकल से उत्तर लिख लाने की बात भी उसने पापा को बतादी थी ..

शेरू मुँह लटकाकर चला गया . पर जाते जाते नजरों से ही सूरज के साथ अपनी दोस्ती की समाप्ति की सूचना देगया . सूरज ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया .वैसे भी कॉपियों के लेन देन से अधिक उनका मेलजोल था भी नहीं .उस समय तो वह अपनी कामयाबी पर खुश था . और उसे रखने के लिये सही जगह के बारे में सोचने लगा .कुछ दिन बाद जब सब भूल जाएंगे तब वह पतंग को निकाल सकेगा .

दूसरे दिन शेरू दूसरी पतंग ले भी आया और सूरज को दिखा दिखा कर उड़ाने भी लगा पर सूरज अभी तक पतंग के लिये कोई सुरक्षित गोपनीय स्थान की तलाश में था .छत पर रखे पाट सुरक्षित जगह नहीं थी . नीटू किलकिल काँटे की लकीर खींचने कभी भी उसका उपयोग कर सकता था . अपने इस नटखट भाई पर सूरज भरोसा नहीं कर सकता था .

काफी सोच विचार के बाद उसे बैठक में लगी बड़ी तस्वीर के पीछे पतंग के लिये सही जगह लगी .वहाँ न नीटू के शरारती हाथ पहुँच सकते थे न पापा की तेज नजर .गुलकी उसके कामों में न दखल देती है न ही ज्यादा छानबीन करती है .पर सूरज को पहला मोर्चा उसी से लेना पड़ा .पतंग को अखबार में लपेटकर जैसे ही बैठक मैं पहुँचा गुलकी जैसे उसी का इन्तजार कर रही थी .

भैया लो ये कागज . मेरे लिये फूल बना दो .कल गुलदस्ता बनाकर स्कूल ले जाना है .

वैसे सूरज गुलकी का हर काम खुशी खुशी करता है . फूल बनाना उसका शौक भी है पर उस समय गुलकी की माँग उसे बेवक्त की रागिनी लगी .

गुलकी अभी मैं कुछ व्यस्त हूँ . तू मिनी के पास चली जा वह तुझे बुला भी रही थी .

मिनी ..वह तुम्हें कहाँ मिली भैया .वह तो कल ही बुआ के घर चली गई .

तो परसों मिली होगी ..तू अभी जरा माँ को बुला ला .

माँ से क्या काम है ?”

बताऊँगा पहले बुलाने जा तो सही ...

पहले बताओ .”---गुलकी अड़ गई . सूरज ने बेवशी के साथ देखा .जानता था कि गुस्सा करने से तो वह और फैल जाने वाली थी इसलिये प्यार से समझाया कि वह कहना मानेगी तो ऐसे फूल बनाकर देगा कि सब देखते रह जाएंगे . नहीं तो फिर नहीं... यह सुनते ही गुलकी चली गई . सूरज ने पलंग पर चढ़कर पतंग को तस्वीर के पीछे छुपाया ही था कि नीटू जी आ धमके और आते ही सीधा सवाल ठोक दिया—

तुमने वहाँ क्या छुपाया है भैया ?”

हद होगई .”–सूरज ने सोचा . हर कोई उसके पीछे जासूस की तरह लगा है .गुलकी से पीछा छूटा तो ये महाशय..झल्लाकर बोला –--“हाँ छुपाए हैं बड़े बड़े लड्डू ..

लड्डू !!”-–नीटू की आँखें बिल्ले की तरह चमकीं –--“तब तो मैं जरूर लूँगा . यह कहकर वह पलंग पर चढ़ गया और तस्वीर तक हाथ बढ़ाने लगा . सूरज परेशान होकर नीटू को देखा .यह उसकी सीमा का अतिक्रमण था .वह अपनी कोई चीज इससे बचाकर नहीं रख सकता . छोटा होकर भी उस पर हावी रहता है . पापा का समर्थन जो मिला हुआ है इसे . पर वह भी किसी से कम नहीं . वह किसी से नहीं डरता . पापा से भी नहीं.....नीटू क्या है .इतना सोचते ही उसने नींटू के दोनों हाथ पकड़कर झटका तो वह नीचे गिर गया और चीख मारकर रोने लगा . चोट के कारण नहीं , सूरज के अपराध को गंभीर बनाने के लिये ताकि उसे बड़ी सजा मिले .पर सूरज को कोई परवाह नहीं थी .

शाम को पापा ने सूरज की खूब खिचाई की . कहा –-“इतना बड़ा होगया है पर इतना तमीज नहीं कि अपने छोटे भाई बहिन के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है .

सूरज को मालूम था कि पापा उसी को दोष देंगे इसलिये चुपचाप सुनता रहा . मन में एक सवाल जरूर उठा कि अपने हिसाब से पापा उसे जब चाहे क्यों बड़ा बना देते हैं और क्यों छोटा . जब खाने की चीजें बाँटने या नीटू गुलकी की मदद की बात हो तो पापा उसे बड़ा कहते हैं और साइकिल चलाने , बाजार जाने या अपनी कोई राय देने की बात हो तो पापा उसे छोटा कहते हैं . पता नहीं क्यों उसकी इतनी खींचतान होती है .

उस दिन के बाद नीटू उसका खुलेआम विरोधी होगया . गुलकी को उसने अपने साथ कर लिया . दोनों साथ खाते और खेलते . सूरज को सुना सुनाकर बड़ी बड़ी योजनाएं बनाते . सूरज बहुत अकेला पड़ गया .अब उसे पतंग भी बोझ लगने लगी . पतंग छुपाने से उसे क्या मिला . न किसी को दिखा सकता है न उड़ा सकता है शेरू को तो लौटाने से रहा और घर में बताना उनका विश्वास खोना होगा . उसे छुपाना भी एक समस्या है . फाड़कर फेंकने या जलाने से सारी कहानी खत्म की जा सकती है .पर ऐसा करना बुज़दिली होगा. सूरज बुजदिल नहीं है . अब वह पतंग को सुरक्षित जगह पर छुपाएगा भी और एक दिन उड़ाएगा भी .

मौका पाकर वह पतंग को लेकर अन्दर वाले कमरे में गया . कमरे में अँधेरा था जो बाहर से ज्यादा सघन लगता था .पर उसे परवाह नहीं थी . वैसे भी अभ्यस्त आँखों के आगे अँधेरा खुद ही कमजोर होजाता है .कमरे में एक बड़ा और पुराना सन्दूक ईँटों पर रखा था . उसके नीचे खाली जगह में सूरज ने पतंग को सरका दिया . यहाँ पतंग पूरी तरह सुरक्षित थी .माँ झाडू लगाने जरूर आती थी पर सन्दूक के नीचे तो हाथ नही न डालती होगी . सूरज ने पतंग रख तो दी पर अनायास ही साँप बिच्छू की आशंका हुई और जल्दी से हाथ खींचा तो सन्दूक की तली में निकली धारदार पत्ती कलाई को चीरती हुई निकल गई . खून की धार फूट पड़ी . वह पीड़ा से तड़फ उठा . जल्दी से जो कपड़ा मिला बाँध लिया . पर जो जमीन पर गिरी लाल बूँदें दिखीं तो पीड़ा को भूल गया . पापा को पता चलेगा तो सान्त्वना की जगह डाँटेंगे . एक बार पेड़ से गिरने पर पाँव में मोच आगई तब पापा ने दिलासा देने की बजाय दो थप्पड़ मारे कि ऐसे ऊधमी लड़कों को इससे भी ज्यादा दण्ड मिलना चाहिये . बिस्तर में पड़े पड़े उसे चिन्ता सता रही थी कि कलाई के घाव को कैसे छुपाए . पीठ पेट में होता तो कोई चिता न थी . तभी उसे पूरी बाँह की शर्ट पहन लेने का विचार सूझा . चादर ओढ़े ही उसने माँ को पुकारा फुल शर्ट की क्या जरूरत पड़ गई सूरज ?”

जरा सर्दी लग रही है मम्मी .

सर्दी !...सर्दी का मौसम तो नहीं है . कहीं बुखार तो नहीं है ?”

नहीं मम्मी बुखार उखार कुछ नहीं बस यूँ ही .

हूँ होगा तो भी तू क्या बताएगा ?”---यह कहकर माँ ने बुखार देखने के लिये वही हाथ पकड़ लिया . सूरज की कराह निकल गई .

अरे क्यों क्या हुआ ?”माँ ने कपड़ा खोलकर देखा .

अरे राम !खून ..! सूरज यह कैसे लगी .

कुछ नहीं मम्मी ,जरा सी तो चोट है .ठीक हो जाएगी .

ठीक होगी बाद में . पहले यह बता कि लगी कैसे .

छोड़ो भी मम्मी , लग तो गई ही है ना . पूछने से क्या फायदा . प्लीज पापा को मत बताना ..

माँ घाव पर मरहम लगाती ध्यान से सूरज की बात सुनती रही . बोली कुछ नहीं .

दो तीन दिन बाद सूरज को उसके पापा ने अपने पास बुलाया . सूरज पिता के सामने जाने से कुछ डर रहा था वे ज्यादातर गलती पर डाँटने या समझाने पर ही बुलाते हैं . कलाई के घाव का उन्हें पता चल ही गया होगा . नहीं तो अब चल जाएगा .अब  होगा देखा जाएगा .

लेकिन पापा के सामने जाते ही सारी आशंकाएं मिट गई . उन्होंने सूरज को प्यार से पास बिठाया . हालचाल पूछा . सूरज चकित था . डाँट-फटकार से मन विद्रोह के बिगुल बजा देता है पर प्यार के दो बोल सब कुछ पिघला देते हैं .कुछ पल बाद पापा ने सूरज के सिर पर हाथ फेरकर पूछा –

पतंग उड़ाना बहुत अच्छा लगता है न ?”

यह कैसा सवाल है ? किस घटना की भूमिका है .?’–सूरज का दिमाग चकराया . शायद पापा मन की थाह ले रहे हैं . इसलिये वह मजबूती से बोला --

न ..न..नही तो मैं पतंग का नाम भी नहीं लेता .

नाम नहीं लेते हो पर पतंग के लिये कोई भी खतरा लेने तैयार रहते हो .

न..नही तो पापा ..

डरपोक कहीं के .” --पापा ने हल्की सी चपत लगाई  . सूरज और भी हैरान . पापा ने उसे डरपोक किस आधार पर कहा . अँधेरा तो क्या...वह तो साँप-बिच्छुओं से भी नहीं डरता . तभी माँ उसी पतंग को लेकर आगई . देखकर सूरज की समझ में सब कुछ आगया . सिर झुकाकर अपनी गलती मान लेने के अलावा कोई चारा न था .

यह वही पतंग है न जिसे छुपाने तुम अँधेरे कमरे में गए . बिना किसी खतरे की परवाह किये हुए ..

जी ..नहीं ..

तभी तो मैंने डरपोक कहा .जो अपनों से अपने मन की बात भी नहीं कह पाए उसे और क्या कहा जाए .

बेटा कोई सुने या ना सुने, समझे या ना समझे ,सच कहने में कोई हर्ज नहीं . बल्कि कहना ही चाहिये . कुछ कारण हैं कि मैं पतंगबाजी का विरोध करता हूँ पर इतना भी नहीं कि मेरे बेटे में सच बोलने का हौसला ही जाता रहे ..

यह कहकर पापा ने थैले में से दो सुन्दर पतंगें निकालकर सूरज को दे दीं .सूरज ने पापा के चेहरे को देखा .आँखों में नाराजी की जगह स्नेह था . उसने दोनों पतंगें एक तरफ सरकादीं और पापा से लिपट गया अब उसे पतंग की जरूरत नहीं थी . उसे पतंगों से भी अच्छी चीज मिल गई थी –पापा का प्यार ... 










शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

रद्दी सामान

 दीपावली पर विशेष

वरुण भैया ने आँगन में बिखरे सामान को ऐसे देखा जैसे कोई मरे हुए जानवर को देखता है । फिर उससे ही जल्दी छुटकारा पाने की आतुरता दिखाते हुए उन्होंने अपना आदेश मेरी तरफ गुलेल की गोली की तरह फेंका---"राजन् ! जा जल्दी से किसी रद्दीवाले को पकड़ ला । कहीं भी मिल जाएगा । आजकल रद्दीवाले गली-मोहल्लों में ऐसे घूम रहे हैं जैसे बरसात में मेंढक-केंचुए घूमते हैं ।"

यह कहते-कहते उन्होंने अपनी नाक ऊपर खींच कर होठों को कुछ इसतरह सिकोड़ा कि नाक के दोनों तरफ नालियाँ सी बन गईं । ऐसी जटिल मुद्रा वे किसी के प्रति गहरी उपेक्षा दिखाने के लिये करते हैं । पर उस समय उनकी उपेक्षा रद्दी के लिये थी या रद्दी खरीदने वाले के लिये कहना मुश्किल था ।

लेकिन मुझे खुशी हुई । भैया उस ढेर सारे पुराने सामान को अलविदा कहने वाले थे जो बेकार ही था और जिसके कारण हम घर में कभी नयापन महसूस नही कर पाते थे । हर साल दीपावली पर सफाई--पुताई होती और वह सामान इधर से उधर सरका दिया जाता था । पर कचरे में हरगिज नही फेंका जाता था ।

हमारे पिताजी को पुरानी चीजें जोड़ते रहने का विशेष चाव है । घर की कोई चीज उनसे बिना पूछे बाहर नही जासकती । चाहे वे फटे-पुराने जूते-चप्पलें ही क्यों न हों ।

"किसी जरूरतमन्द को ही दे देंगे ।"--इस संग्रह के पीछे पिताजी का यही तर्क रहता था ।

"लेकिन पिताजी जो चीज हमारे काम की नही उसे दूसरों को देना क्या ठीक होगा ?"--भैया कभी-कभी पूछते तो पिताजी एक ही बात कहते ---"कुतर्क करना तो सीख गए हो, कुछ अच्छी बातें भी सीख रहे हो कि नही !"

एक बार चाचाजी ने कह दिया कि 'पुरानी बेकार चीजों को तो निकाल ही देना चाहिये ।' बस पिताजी उनके पीछे पड़ गए । दादी से बोले----"सुन लो माँ ! पुरानी चीजें इनके लिये बेकार हैं । कल को हम-तुम पुराने हो जाएंगे तो ...।"

"अरे भाईसाहब !"---चाचाजी कुछ झेंप कर बोले---"मैं तो घर की फालतू और बेजान चीजों के लिये कह रहा था ।"

"क्यों भाई, इन फालतू बेजान चीजों से क्या तुमने कभी काम नही लिया ?"--पिताजी किसी काबिल वकील की तरह अपने प्रतिपक्षी को पछाड़ने के लिये ढेरों दलीलें जेब में रखते हैं ।

"तुम इन्हें फालतू कह रहे हो वे क्या हमेशा से ही फालतू थीं । इन चप्पलों को ही देखो ,जब खरीदीं थी तब तो नई थीं न ?"

"जी हाँ नई थीं ।"

"इनकी यह हालत इसलिये हुई कि तुमने खूब घसीट कर पहनीं । है न ?"

"हाँ ।"

"बस" --पिताजी विजयी भाव से बोले ---"यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि किसी चीज से हम काम लें और काम की न रहने पर फालतू करार दे दें क्या यही इन्सानियत है ?"

"ओफ् ओ भैया !"---चाचाजी अधीर हो जाते पर पिताजी क्या किसी को बोलने का मौका देते हैं । कहने लगे --"सवाल बेजान या जानदार का नही है हमारी सोच का है । आज हम जो बात इन चीजों के लिये कह रहे हैं कल इनसानों के लिये भी सोचेंगे । क्या मैं गलत कह रहा हूँ ?"

अपनी हर बात के पीछे पिताजी यह सवाल जरूर लगाते हैं --क्या मैं गलत कह रहा हूँ । जाहिर है कि इसका जबाब सबको 'नही' में ही देना होता है चाहे उनके तर्क कितने ही बेतुके क्यों न हों ।

आप समझ सकते हैं कि क्यों हमारे घर से अब तक कोई इस सामान को चाह कर भी नही निकाल पाया ।

इधर दीपावली का त्यौहार दस्तक देने लगा । चारों तरफ सफाई-धुलाई पुताई और रंगाई का काम युद्ध-स्तर पर होने लगा । हमारे सामने हमेशा की तरह वही सवाल खड़ा था कि पुराने बेकार सामान का क्या करें ।

संयोगवश पिताजी को तीन-चार दिन के लिये बुआ के यहाँ जाना पड़ गया ।माँ ने जाते-जाते वरुण भैया के कान में चुपचाप एक वाक्य सरका दिया-- "सारे रद्दी सामान को निकाल फेंकना । लौट कर पिताजी थोड़ा बहुत बखेड़ा करेंगे और कुछ नही । बाद में सब ठीक हो जाएगा।"

भैया यह विशेषाधिकार पाकर खुश होगए । पर मैं उनसे ज्यादा खुश था । सो पूरे उत्साह के साथ पुराने सामान को निकलवाने व छँटवाने में उनके साथ लग गया । पूरे दो दिन की मेहनत के बाद आँगन में ढेर सारी पुरानी चीजें----लोहा--पीतल के टूटे-फूटे सन्दूक और बर्तन,पेटियाँ,कुर्सियाँ,बैग,चरखा ,लालटेन,डिब्बे-डिब्बियाँ किताबें ,खिलौने कुछ पुराने कपड़े आदि बिकने के लिये तैयार थीं ।    

"लोहा..प्लास्टिक वाला...टीन-टप्परवाला ,रद्दी अखबार वाला ".--मैंने देखा गली में चार पहियोंवाला ठेला धकेलता हुआ एक आदमी आँखें बन्द कर आसमान की ओर पूरा मुँह खोले चिल्ला रहा था ।

"ओ रद्दी वाले भैया । रद्दी खरीदोगे ?"

मेरी बात सुन वह लपककर हमारे द्वार पर आ खड़ा हुआ ।

"भैया, भैया मैं उसे ले आया ।" मैंने उल्लास के साथ कहा पर भैया ने जाने क्यों मेरी बात जैसे सुनी ही नही ।

"भैया ,चलो न !" मैंने कहा तो कुछ खीजकर बोले----"रुक जा यार ।"

पाँच साल बड़े भैया जब मुझे इस दोस्ताना सम्बोधन से पुकारते हैं तो मैं समझ जाता हूँ कि वे किसी असमंजस में हैं और उन्हें मेरी मदद की जरूरत है ।

"क्या बात है भैया ?" मैंने पूछा तो भैया बड़े विचारशील व्यक्ति की तरह बोले--

"राज ,हमें एक बार फिर से देख लेना चाहिये कि इनमें कोई जरूरी सामान तो नही है !"

"दो दिन से हम क्या बैठे-बैठे गीत गा रहे थे ?"---भाभी व्यंग्य से बोली---"बाहर आदमी इन्तजार कर रहा है बेचारा ।" 

"विनी तुम जरा शान्त रहोगी ?" भैया माथे का पसीना पौंछते हुए बोले । फिर मुझसे कहने लगे-----"देखो राज, सामान को बेचना जितना आसान है खरीदना उतना ही मुश्किल । तुम नही समझते कि जिन्दगी कैसे चलाई जाती है !"

भैया की बात सुन कर मेरी हँसी फूटते-फूटते रह गई । भला इस रद्दी सामान का जिन्दगी के चलने से क्या सम्बन्ध । लेकिन मैंने देखा कि भैया का जोश (सामान को निकालने का) उसी तरह धीमा होगया था जिस तरह सिग्नल न मिलने पर कारण गाड़ी की गति धीमी हो जाती है । रुक भी जाती है ।

हाँ मैंने भैया की बातों में एक खास बात देखी कि  न तो ये वाक्य भैया के थे न ही बोलने का लहजा । उनके मुँह से सरासर पिताजी बोल रहे थे । शरीर से सैकड़ों मील होने के बाबजूद पिताजी भैया के विचारों व शब्दों में बखूबी मौजूद थे । मैं हैरान रह गया । जाहिर है कि इसमें भैया का कोई दोष नही था । और तब जरूरी था कि हम उनकी बात समझते । वे कहे जा रहे थे--

"पुरानी चीजों की बड़ी अहमियत है राज । इस लकड़ी के सन्दूक को देखो । दादाजी के पिताजी ने मात्र तीन रुपए में खरीदा था । आज भी कितना मजबूत है !"

"इसे रहने देते हैं भैया "---मैंने उदार होकर कहा । हालाँकि मेरी हालत अच्छे भले उड़ते गुब्बारे में सूराख हो जाने जैसी होने लगी थी लेकिन...।

"यह लोहे का बक्सा देखो भले ही जंग खा रहा है पर मजबूती में कम नही है देखो--"--यह कह कर उन्होंने सन्दूक में दो-तीन मुक्के मार कर दिखाए---"पेंट करवा लेंगे तो नए को मात देगा । है कि नही ?"

मैंने लोहे का बक्सा भी एक तरफ सरका दिया । भैया को जैसे रास्ता मिल गया । चहक कर बोले---"विनी देखो यह गुड़िया और उसका सन्दूक । याद है तुम्हारी दादी ने जन्मदिन पर तुम्हें दिया था !"

भाभी बिना रुकावट के मुस्कराई और छोटी बच्ची की तरह झपट कर भैया से अपना सामान छीन लिया ।

"राजन् ये लकड़ी की पेटियाँ अलग रखदो ।" --भैया अब खुल कर आदेश देने लगे ।

"क्या है कि इनसे कई काम लिये जा सकते हैं । इनमें गैरजरूरी सामान भरा जा सकता है । चाहो तो टेबल का काम ले लो । कुछ नही तो मिट्टी भर कर गमले ही बना लो । देखो..यह लालटेन ..क्या हुआ जो बिजली के युग में कोई इसे पूछता नही पर बिजली भी तो चली जाती है कभी-कभी...। नही ?"

"भैया इसे भी रख लेते हैं "--भैया की बातें च्यूइंगम की तरह न खिचने लगें मैंने तुरन्त लालटेन उठा कर एक तरफ रखदी । फिर तो जादुई तरीके से सामान छँटने लगा ।सबके पीछे काफी दमदार दलीलें ---"ये कुर्सियाँ जरा सी मरम्मत कराके नई हो जाएंगी ।... यह चरखा व चक्की माँ के जमाने की यादगार हैं । और सिंगारदान चाचीजी के ब्याह की निशानी ये खलौने व झूला भैया के बचपन का है तो पीतल के बड़े भगौने दादी के दहेज की निशानी । ...किताबें तो सभी पढ़ने लायक हैं और पत्रिकाओं में बुनाई व व्यंजनों के बढ़िया नमूने । ...अखबारों को गला-कूट कर माँ बढ़िया टोकरी व मूर्तियाँ बना लेंगी और भाभी पालीथिन से दरी और आसन । बैग की केवल चैन खराब है और जूतों की जरा सिलाई होनी है । ये चप्पलें बरसात में अच्छा काम देंगी ......।"

पूरा नाटक पुराना था । कथानक ,संवाद सब कुछ वैसे ही । सिर्फ पात्र बदल गए थे । चूँकि मुझे अभी तक इसमें कोई भूमिका नही मिली थी सो असमंजस में खड़ा था तभी भाभी ने पुकारा---"अरे राज, ये पेंट शर्ट छोटे तो होगए हैं पर होली पर पहनना काफी मजेदार रहेगा ।तंग शर्ट चार्ली चैपलिन जैसी और यह हैट आवारा के हीरो जैसा । दादाजी की छड़ी और पिताजी की घड़ी । मजा आएगा न !"

भाभी की बात से मुझे समझ में आगया कि मुझे भी एक छोटी सी भूमिका अदा करनी है वह यह कि दरवाजे पर आधा--पौन घंटे से खडे रद्दी वाले को जो कई बार हमें जल्दी करने को उकसा चुका था ,किसी तरह चलता करना था । इसलिये मैंने इधर--उधर से कुछ शीशियाँ ,जिनके ढक्कन गायब थे कुछ चप्पलें जिनमें मरम्मत की गुंजाइश न थी ,कुछ कागज, फटी किताबें और कील-काँटे समेटे और रद्दीवाले को देने चल दिया । इससे ज्यादा देने को हमारे पास कुछ था ही कहाँ !  

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सोमवार, 2 अगस्त 2021

सतरंगी और फूल


एक थी सतरंगी .

वह रंग-बिरंगे पंखों वाली एक सुन्दर तितली थी .वह केवल सुन्दर ही नहीं थी , बड़ी चचंल और मनमौजी भी थी .उसने जैसे ही उड़ना सीखा , बस अपनी मौज में यहाँ वहाँ उड़ती रहती थी .कभी इस टहनी पर तो कभी उस फूल पर . न उसे कोई रोकता था न टोकता था ..पेड़ पौधे फूल कलियाँ ,हवा ,आसमान सब कुछ जैसे उसका अपना था . जब वसन्त ऋतु आई और तमाम पेड़ पौधे लाल गुलाबी नीले पीले सफेद जोगिया ..हर रंग के फूलों से सज गए तो उसे लगा कि फूल उसे बुला रहे हैं . सतरंगी बहुत खुश थी .

एक सुबह नरम धूप में वह मौज में उड़ती हुई सैर को
निकली थी कि उसकी नजर एक पेड़ पर ठहरकर रह गई .वह पेड़ पूरी तरह फूलों से ढँका हुआ था . जैसे उसने फूलों की चादर सिर से ओढ़ रखी हो . उसकी टहनियों में पत्तों की जगह भी फूल ही थे . पाँच पंखुड़ियों वाले गुलाबी बैंगनी फूल . अगर मैं गलत नहीं हूँ तो वह पेड़ कचनार का था .

अरे वाह ,ये तो बड़े सुन्दर फूल हैं .इनके साथ मैं बहुत दिनों तक एक अच्छा समय बिता सकती हूँ


.”---सतरंगी ने तय किया और पेड़ के चारों ओर मँडराती हुई पूछने लगी –--“ओ फूलों से लदे हुए सुन्दर पेड़ , ये सारे फूल तुमने किसके लिये खिला रखे हैं ?

तुम्हारे लिये प्यारी तितली ! भला और किसके लिये  ?”——पेड़ ने सतरंगी को दुलार से देखते हुए कहा .उसे लगा कि मासूम सी नन्ही तितली के लिये इससे अच्छा जबाब नही हो सकता . पेड़ की बात सुनकर सतरंगी सचमुच बहुत खुश हुई . और एक फूल के पास जा बैठी .

‘”अहा इतने सारे और प्यारे फूल मेरे लिये !...अब मैं एक लम्बे समय इनके साथ रह सकूँगी . खूब बातें करूँगी और जब मन होगा मीठा मीठा रस भी पी लूँगी .

उसके और फूलों के बीच आकर कोई रंग में भंग न डाले , इसके लिये उसने एक तख्ती पर लिखकर टाँग दिया—

‘ये फूल सतरंगी के हैं इसलिये किसी का भी यहाँ आना सख्त मना है .

अब फूल किसी चहारदीवारी से घिरे तो थे नहीं ,जो दीवार लाँघनी पड़ती . हवा और धूप तो दीवार नहीं बनतीं न ? सो अगली सुबह जबकि धूप पेड़ों की फुनगियों से नीचे उतर भी न पाई थी कि काली और छोटी सी चिड़िया टहनियों पर फुदकती हुई फूलों तक आगई .मारे खुशी के उसकी पूँछ ऊपर--नीचे नाच रही थी . उसके पीछे ही भन् भन् करता एक भौंरा भी आगया और जल्दी ही कुछ कुछ मधुमक्खियाँ भी सन् सन् करती हुई आगईं सब फूलों से रस लेने में मगन हो गए . सतरंगी को यह बड़ा नागवार लगा . यह तो वही बात हुई कि मान न मान मैं तेरा मेहमान ... रूखे स्वर में बोली-- 

कौन हो तुम सब ? बिना किसी अनुमति के यहाँ क्यों आए हो ?”

हमें ये फूल बहुत अच्छे लगते हैं इसलिये इनसे मिलने आए हैं और क्या ...

पर ये फूल तो मेरे हैं .तुम इनसे नहीं मिल सकते . क्या तुम लोगों ने बोर्ड पर लिखी सूचना नहीं पढ़ी ?”

तितली रानी हमें पढ़ना नहीं आता .”—एक चिड़िया बोली . तितली तेवरों को और तेज कर बोली --

रानी.....?  मैं रानी कैसे हो सकती हूँ अभी तो बहुत छोटी हूँ ? ”

तो राजकुमारी तो हो सकती हो ...... हाँ तो राजकुमारी जी हमने तो कोई बोर्ड नहीं देखा ..”—एक भौंरा मजाक के लहजे में बोला .

दरअसल हमने जरूरी भी नहीं समझा .” मधुमक्खियाँ कुछ तेजतर्रार थीं सो बीच में आकर अकड़ उठीं बोलीं .पर उस समय तितली का ध्यान चिड़िया की बात पर था .

ओह ,बुरी बात कि तुमने पढ़ना नहीं सीखा ! अब सीखना शुरु करो बहुत जरूरी है ....खैर बोर्ड की सूचना मैं ही पढ़कर सुना देती हूँ .बोर्ड पर लिखा है कि इस पेड़ के पास आना सख्त मना है क्योंकि सारे फूल सतरंगी के हैं .

हें !!!...यह कब हुआ ?”—सब एकदम चौंक उठे . ऐसा तो कभी नहीं हुआ .

आज ही ..चाहो तो इस बड़े और फूलों वाले खूबसूरत पेड़ से खुद पूछलो . ये सारे फूल सिर्फ सतरंगी यानी मेरे हैं ना ? ” —अपनी बात की पुष्टि के लिये तितली ने पेड़ की ओर देखा .

यह तितली ने इतने विश्वास के साथ कहा कि पेड़ को हैरानी हुई . कुछ अफसोस भी . सतरंगी को बाँटकर खाने और मिलजुल कर रहना सीखना होगा ,पर अभी वह कुछ ऐसा नहीं कहना चाहता था जिससे नन्ही तितली दुखी हो जाए . अभी नया नया उड़ना सीखी थी . पेड़ को यह भी मालूम था कि जो कुछ कोई खुद अनुभव से सीखता है उसे वह दिल से मानता है और अपनाता भी है .

यहाँ और भी बहुत सारे फूलों वाले पेड़ हैं .जहाँ तुम लोग पराग रस लेने के साथ खुलकर गा भी सकते हो .  पेड़ ने चिड़िया भौंरे और मधुमक्खियों को कुछ इस तरह समझाया कि वे बिना किसी मलाल के दूसरे पेड़ों पर चले गए . वास्तव में वे सब नन्ही तितली को नाराज नही करना चाहते थे .

सतरंगी खुश होकर फूलों के बीच मँडराने लगी . अब वह थी और उसके पास थे बेशुमार गुलाबी बैंगनी फूल थे . उल्लास से भरी कभी उड़कर इस फूल पर तो कभी उस फूल से  . फूल खिलखिलाते रहे .

लेकिन फूल थे अनगिन . एक अनार सौ बीमार ...नहीं , कहना होगा --एक तितली और हजारों फूल . नन्ही सी जान किससे बात करे और किसे छोड़े . पर फूल पुकारे जाएं –--“सतरंगी यहाँ आओ ….सतरंगी मुझसे बात करो ...सतरंगी मेरी बात सुनो....सतरंगी तुम हमें अनदेखा कर रही हो .....ओ सतरंगी तुम मेरे पास कब आओगी ...”

चारों तरफ फूलों का शोर . सतरंगी हैरान . फूल लगातार पुकारे जा रहे थे .सतरंगी सतरंगी ...ओ सतरंगी .

ओफ् ओ ..मैं सबके पास एक साथ नहीं आ सकती ना ! मैं थक गई हूँ . ”---सतरंगी की कुछ परेशान होकर बोली .वह रस पी पीकर छक भी चुकी थी  फूलों के आसपास चक्कर लगा लगाकर थक भी गई थी .

हमें पता है कि तुम थक गई हो पर हम चाहते हैं कि तुम हमारा सारा पराग रस ले लो .—कई फूल एक साथ बोल पड़े .

हमारे पास बहुत सारा पराग रस है . वह बेकार चला जाएगा .

बेकार क्यों जाएगा ? मैं हूँ ना . धीरे धीरे सारा खत्म कर दूँगी . एक साथ नहीं कर सकती ..

ओह , ...पर नन्ही तितली हम इतना नहीं रुक पाएंगे हमें जाना है

जाना है ! क्यों ,कहाँ जाना है ?”---सतरंगी चौंकी .

वहीँ जहाँ पूरा खिलने के बाद हर फूल पेड़ को अलविदा कहकर जाता है . हमें कोई देखे न देखे ,चुने न चुने  पराग को कोई ले या न ले हमें तो जाना ही होता है .

तो पराग पाँखुड़ी सब बेकार ही चली जाती है ?”

और नहीं तो क्या . वैसे ही जैसे सही इन्तज़ाम या खरीददार न मिलने पर अनाज और सब्जियाँ फेंक दी जातीं हैं .

और जैसे खाने वाले न होने पर खाना फेंक देना पड़ता है ठीक वैसे ही ....”—सब रटे रटाए से संवाद बोल रहे थे . यह सब सुनकर तितली सोच में पड़ गई . फूल लगातार कहे जा रहे थे--

अच्छा होता कि हम ज्यादा से ज्यादा किसी के काम आते पर तुम तो अकेली हो .कहते हैं ना कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता . तुम बेचारी अकेली तितली क्या कर सकती हो .तुम्हारा कोई दोस्त भी तो नहीं ..

ओह , काश तुम ज्यादा दिन रुक सकते .या कि चिड़िया ,मधुमक्खियाँ आदि भी सब यहीं होते . तब तुम्हें यों निराश न जाना पड़ता .....”

तुम चाहो तो उन्हें अब भी बुला सकती हो .—पेड़ ने कहा . जबाब में तितली ने क्या कहा यह तो मालूम नहीं पर कुछ ही देर बाद कचनार का पेड़ चिड़ियों की चहचहाहट से झुनझुना बना हुआ था . भौंरे गुंजार कर रहे थे . मधुमक्खियाँ और कई कीट-पतंगे कचनार के फूलों से बतिया रहे थे . फूल भी खुश थे और सतरंगी भी . 

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शनिवार, 19 जून 2021

मेरे बाबूजी

सरल साँवले दुबले-पतले मेरे बाबूजी .

भट्टी में तपकर निकले थे मेरे बाबूजी .


नियमों के पक्के बाबूजी 

बातों के सच्चे थे . 

निर्मम था अनुशसन  ,

पर दिल से पूरे बच्चे थे .

बड़े कठोर ,बड़े कोमल थे मेरे बाबूजी .


लेखन गायन और चिकित्सा में

पूरे निष्णात .

कभी नहीं आए जीवन में ,

द्वेष, बैर , छल ,घात .

झूठ ,कपट से अनजाने थे मेरे बाबूजी .


सादा जीवन ,ऊँचा चिन्तन ,

ध्येय रहा जीवन में .

जाति धर्म का भेद न माना

थी समरसता मन में .

सबके प्यारे मास्टरजी थे मेरे बाबूजी .


“या हंसा मोती चुगै 

या लंघन मर जाय .

जितनी लम्बी चादर हो ,

उतने ही पाँव बढ़ाय .”

यही सीखकर पले बढ़े थे मेरे बाबूजी .


नंगे पाँव चले काँटों पर  ,

थककर कभी न हारे  .

धूप छाँव में रहे एकरस ,

खोजे नहीं सहारे .

यही सिखाते रहे सभी को मेरे बाबूजी .

मरु में लाते रहे नमी को मेरे बाबूजी .

बुधवार, 16 जून 2021

छुटकू की उड़ान

 बुलबुल हैरान थी . उसके तीन बच्चों में से दो बच्चे बड़े शौक से जल्दी उड़ना सीख गए थे . एक बच्चा तो ,जो तीनों में सबसे ज्यादा तन्दुस्त और चुलबुला था वह इस टहनी से उस टहनी तक उड़ानें भरकर माँ को अपना कौशल-करतब दिखा रहा था . दूसरा बच्चा भी माँ का अनुकरण करते आँगन की मुँडेर तक और फिर मुँडेर से अमरूद की टहनी तक उड़ने में कामयाब हो चुका था .अब वह नीम की शाखा तक पहुँचने की कोशिश कर रहा था . बुलबुल बराबर उसका हौसला बढ़ा रही थी . लेकिन तीसरे  बच्चे में, जिसे सुविधा के लिये छुटकू कह सकते हैं, उड़ने की ललक जरा भी दिखाई नहीं देती थी . इसलिये उसे उड़ना सिखाना कठिन हो रहा था .

छुटकू बाकी दो बच्चों की तुलना में शुरु से ही कुछ मनमौजी और लापरवाह था . दोनों की तुलना में कुछ छोटा और कमजोर भी . जब बुलबुल सुबह सुबह उनके नाश्ते के लिये इल्ली ,टिड्डा या कोई दूसरा कीड़ा पकड़ लाती तब दो बच्चे किलक कर चोंच खोल देते थे लेकिन छुटकू आँखें बन्द किये आराम से बैठा रहता

ओ आलसीराम ! जागो और अपने हिस्से का नाश्ता लो .” –-एक बच्चा छुटकू को हल्का सा धकेलकर कहता .तब कहीं छुटकू महाशय चोंच खोलते .

 अब मैं कुछ दिन ही तुम्हारे लिये खाना लाऊँगी ..फिर अपने लिये नाश्ता तुम्हें खुद लाना होगा ..—बुलबुल ने बच्चों को समझाया ..

और अब हमें यह घोंसला भी छोड़ना होगा . इसलिये उड़ने के लिये तैयार हो जाओ  . आज से ही अभ्यास करना है .

हाँ माँ हम तैयार हैं .”.—दो बच्चों ने माँ की बात  एक साथ चहके .

छुटकू तुम भी .”–बुलबुल ने छुटकू को चुप देखकर कहा .

हाँ माँ मैं भी ..लेकिन मैं कुछ सोच रहा था .– छुटकू ने कहा .

क्या ?”

 यही कि अभी कुछ दिन और रहते हैं ना इस घर में . -- छुटकू ने अपने नन्हे कोमल पंखों को सिकोड़ते हुए कहा .

घोंसले में रहने के दिन बीत चुके हैं मेरे लाल .  घर में ही रहोगे तो आसमान कैसे देख सकोगे ? . –बुलबुल ने चोंच से उसके नन्हे पंख सहलाकर कहा .ऐसा कहते हुए उसकी आवाज और मीठी होगई थी .

 तभी दूसरा बच्चा बोल पड़ा--

 ओ भाई ! माँ ने कहा है न कि अब हमें घर की जरूरत नहीं हैं . हम बड़े होगए हैं .अब उड़ भी सकते हैं और अपना भोजन भी खुद ही ढूँढ़ सकते हैं .

छुटकू ने कोई जबाब नहीं दिया .

क्या तुम डर रहे हो ? मैं तो जरा भी नहीं डरा ..देखो ऐसे पंख हिलाते रहना .पहले वाले बच्चे ने छुटकू को पंख फड़फड़ाकर दिखाए और उड़कर छत की रेलिंग पर जा बैठा .

 तुम जाओ मैं यहाँ कुछ दिन और रहना चाहता हूँ . छुटकू ने सीना फुलाने की कोशिश करते हुए कहा .

शायद यह उसका डर ही है –बुलबुल ने सोचा और अचरज भी हुआ आज तक वह कितने बच्चों को पाल पोस कर उड़ना सिखा चुकी है  किसी ने ऐसा नहीं कहा . पंख होजाने पर भला घोंसलों में कौन रहना चाहता है .

फिर उसने छुटकू से कहा –-तुम अकेले ही यहाँ कैसे रह सकोगे जबकि हम सब एक नई और सुन्दर दुनिया का हिस्सा बनने जा रहे हैं ? वहाँ तुम देखोगे कि फूलों के आसपास कितनी सुन्दर तितलियाँ उड़ रही हैं ..आसमान कितना साफ है , कितनी चिड़ियाँ उड़ रही हैं ..एक उड़ना ही तो चिड़ियों को चिड़िया बनाता है .

इसलिये पहले उड़ना तो सीखलो .फिर जहाँ चाहो रहना ..—बुलबुल ने समझाया .

तुम्हें यह भी जानना जरूरी है कि पत्तों के साथ रह रहे कीड़े धोखा देने के लिये एकदम पत्तों जैसे ही दिखते हैं . ऐसा न हो  कि नाश्ते में इल्ली या टिड्डे की बजाय पत्ता चबाते रहो ---बुलबुल की इस बात पर सब चहक उठे .

आओ छुटकू मेरे साथ . बहुत बढ़िया नाश्ता तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है .” --–यह कहकर बुलबुल उड़कर नीचे एक पौधे की टहनी पर बैठ गई . पर छुटकू घोंसले के किनारे पर बैठा माँ को देखता रहा . वह यहाँ वहाँ ऊपर नीचे उड़ उड़कर छुटकू को उड़ने के गुर सिखा रही थी . पर छुटकू टस से मस न हुआ .

आ जा मेरे बच्चे ! डरो नहीं मैं हूँ ना यहाँ ..आ जा ..आजा . नीचे जमीन पर बैठी बुलबुल ने पुकारा .

इतने ऊँचे से !”- घोंसले के किनारे बैठा छुटकू नीचे देखते हुए घबराया .

जरा सा ही अन्तर तो है तुम्हारे मेरे बीच ..तुम बहुत आराम से आ सकते हो क्योंकि तुम एक बहादुर बच्चे हो ! वैसे भी जैसे ही नीचे आओगे तुम्हारे पंख ,जो अब उड़ने के लिये तैयार हो चुके हैं ,अपने आप खुल जाएंगे ..

यह सुनते ही बड़ा बच्चा बोल पड़ा 

हाँ मैंने कुछ देर पहले एक आदमी को एक बड़ी सी चिड़िया को पेट से गिरते देखा था ..थोड़ी ही देर में उसका बड़ा गोल पंख खुलकर ऊपर तन गया था और वह आदमी मजे से उड़ता हुआ उतरा था .

हाँ , पर वह चिड़िया नहीं हवाईजहाज होता है .उसके पंख को आदमी लोग पैराशूट कह रहे थे –बुलबुल ने बच्चों को बताया .तब छुटकू ने खुद को नीचे छोड़ तो दिया पर उसने महसूस किया कि उसके पंख खुल ही नही रहे , वह घबराकर नीचे फर्श की ओर आया लेकिन अच्छा ही हुआ कि फर्श से टकराने से पहले उसके पंख खुल गए और उसका नन्हा नाज़ुक बदन पंखों ने सम्हाल लिया . इसलिये उसे चोट तो नहीं आई पर वह घबरा गया . जब माँ उसके पास आई वह काँप रहा था .

तुमने कितनी बढ़िया उड़ान भरी छुटकू !”

मुझे पता है वह उड़ान नहीं थी माँ , मैं गिर रहा था ...वह ,बहुत डरावना अनुभव था .

कोई बात नहीं ..सीखने की शुरुआत अक्सर इसी तरह होती है मेरे लाल .  

मुझे ऐसी शुरुआत करनी ही नहीं है .” --कहता हुआ वह एक कोने में पड़े सामान के पीछे जाकर छुप गया .

बुलबुल सचमुच हैरान थी ..कोने में पड़े कबाड़ के पीछे से उसे निकालना बहुत मुश्किल था . मीठी आवाज में अपनी बात कहे जा रही थी – मेरे बच्चे यहाँ छुपाछुपाई खेलना खतरनाक है .तुम मेरे साथ उड़कर चलो  हम दोनों शाखों और टहनियों में खेलेंगे ...

छुटकू ...मेरे लाल ..बाहर आओ .मेरे साथ ..कोशिश तो करो . बुलबुल पुकारे जा रही थी . पर छुटकू को माँ के साथ चुहल करने में आनन्द भी आ रहा था .माँ जैसे ही पुकारती वह और अन्दर घुस जाता . इसी कोशिश में उसने खुद को एक ऐसी जगह पाया जहाँ लगभग अँधेरा था . उजाला एकदम धुँधला था ..कुछ ही देर में छुटकू को लगने लगा कि यह जगह उसके लिये नहीं हैं वह शायद खो गया है .

अरे कोई मुझे पुकारो– -- उसकी नन्ही पतली सी आवाज थोड़ी दूर जाकर खत्म होगई .

कौन हो तुम ? क्या नाम है ? अरे पंखों वाले होकर काकरोच की तरह क्यों रेंग रहे हो ?” छुटकू ने दीवार पर चिपकी एक एक मटमैली सी छिपकली को देखा . सोचा इसे क्यों बताऊँ असली बात .बोला--

मैं ज़रा सैर के लिये निकला हूँ .देख रहा हूँ कि जमीन पर चलना कितना अच्छा लगता है

पर तुम्हारी सूरत बता रही है कि छुपकर भाग आए हो ...तुम अपनी माँ की आवाज को नहीं सुन रहे ,जबकि हम साफ सुन रहे हैं !”-- छिपकली दीवार से नीचे उतरी और कहती हुई सर्र से ऊपर चढ़ गई .

खुद ही तो डर रही है –छुटकू ने सोचा तभी एक छोटी चुहिया भी फुदकती हुई आई .

मैंने री ममा की बातें सुन ली है ..तुम उड़ना नहीं सीखोगे तो सब तुम्हें चिड़िया नहीं ,चूहा कहेंगे .जैसे मुझे कहते हैं .

.अरे चूहा नहीं काक्रोच कहेंगे . बड़ी बड़ी मूँछों वाला काक्रोच ...फिर एक दिन तुम सचमुच काक्रोच बन जाओगे . फिर ममा तुम्हें पहचान भी नहीं पाएगी . –छिपकली फिर आगई वह छुटकू की खीज का आनन्द लेना चाहती थी .

नहीं नहीं मुझे चूहा या काक्रोच हरगिज नहीं बनना . –छुटकू घबरा गया . छिपकली की बातों से ऊब भी रहा था उसने पुकारा----माँ ..माँ मुझे उड़ना है ...

कहाँ हो मेरे बच्चे ? बाहर आओ मैं तुम्हारा इन्तज़ार कर रही हूँ . छुटकू माँ की आवाज का पीछा करता बाहर आगया . बुलबुल ने उसे चौंच में दबा टिड्डा दिखाते हुए कहा .

 देखो मै तुम्हारे लिये बहुत बढ़िया नाश्ता लेकर आई हूँ .

मुझे यह चाहिये माँ ..मैंने कब से कुछ नहीं खाया—.” छुटकू की आँतें कुलबुला उठीं .

पर इसके लिये तुम्हें यहाँ इस टहनी तक उड़कर आना पड़ेगा और तुम जरूर आ सकोगे . बस ज़रूरत है मन को पक्का करने की .

कहते हुए बुलबुल बच्चे के पास आई और ,अब तुम मेरा पीछा करना .,कहते हुए उड़ गई . छुटकू देख रहा था कि माँ कितनी आसानी से उड़ रही है . मुँडेर , फिर मुँडेर से नीम की शाखा तक उड़ उड़कर उसे दिखा रही है .फिर बार बार नीचे उसके पास आकर फिर उड़ान भरकर छत की मुँडेर पर जा बैठती है .

जल्दी करो छुटकू . ऐसा न हो कि पूरा नाश्ता खत्म होजाए .

यह देख उसके पंखों में जबरदस्त हलचल होने लगी ..और उड़कर मुँड़ेर पर जा बैठा .

शाब्बास!” –बुलबुल चहकती हुई उसके पास आई और उसकी पीठ पर चोंच फिरा कर प्यार किया .

अब हमें उस टहनी तक जाना है . कहती हुई बुलबुल उड़ी . उसे देखते हुए छुटकू भी उड़ा .पहली बार टहनी तक तो न पहुँच पाया . नीम के तने में छोटी सी शाख निकली थी उसी पर बैठ गया पर अगली बार उड़कर वह सीधा माँ के पास पहुँच गया जहाँ मोटी शाख पर माँ के साथ उसके भाई-बहिन भी उसका स्वागत करने खड़े खूब चहक रहे थे .

आखिर तुमने सीख ही लिया ना उड़ना ! जियो छुटकू !” –एक बच्चे ने चहक कर शाखा पर फुदकते हुए खुशी जाहिर की .

हाँ अब मुझे कोई काक्रोच तो नहीं न बुला सकेगा .” –छुटकू ने बड़े मासूम अन्दाज में अपने मन की बात कहीं . सुनकर कुछ देर सब एक दूसरे को देखते रहे फिर एक साथ चहक उठे . चहकने में सबसे मीठी और तेज आवाज छुटकू की थी .