शनिवार, 28 जून 2014

"मैं तो छुटकी हूँ ।"


छुटकी गिलहरी वैसे तो हर समय कुछ भी खाने को तैयार रहती है । ब्रेड,बिस्किट,चना मूँगफली से लेकर सूखी रोटी तक बडे चाव से हजम कर जाती है । कुछ नही तो नीम के तने के खर्पटों में छुपे कीडों के ही खोजती चुनती रहती है । यही नही चाय कॉफी की वह बेहद शौकीन है । धोने के लिये रखे कप-गिलासों को लुढ़काकर तली में पड़ी चाय कॉफी की बूँदों की चुस्कियाँ बडे मजे से लेती है । लेकिन उसे जो सबसे ज्यादा पसन्द है ,वह है पके-अधपके फल कुतरना ।
शाखों पर सरपट दौड़ती और टहनियों व पत्तों में छुपती छुपाती वह कब गदराया फल ढूँढ़ लेती है और कब खोखला कर छोड़ देती है ,कोई नही जान पाता। अपने आपको 'कुतरू-उस्ताद' समझने वाले और आँखों में मिर्च झोंककर फल चुरा लेजाने वाले मिट्ठू जी भी चोंच घिसकर रह जाते हैं।

एक दिन की बात है । इधर-उधर घूमते छुटकी ने अनार का एक पेड़ देखा। वैसे तो अनार का पेड़ उसने पहली बार नही देखा था ,लेकिन बडे-बडे अनारों से इस तरह लदा-फदा पेड़ उसने कभी नही देखा था । उसके लिये बड़ा ही रसभरा अनुभव था । टहनियों में लटके हुए बडे-बडे सुर्ख-सुनहरे अनार मानो झूला झूल रहे थे । उनके बोझ से टहनियाँ उसी तरह झुक गईं थीं जिस तरह बोझ से तराजू का पलड़ा झुक जाता है। ऐसे रसभरे अनारों को देख छुटकी का मुँह पानी से लबालब भर गया।
"इन्हें चखे बिना तो मैं रह ही नही सकती "--छुटकी ने सोचा और फुर्ती से उछलती-छलाँगती अनार के पेड़ की ओर लपकी । तभी एक भारी आवाज ने उसे रोका-"ए !ए !रुक ।"
यह आवाज थी शेरू मास्टर की ।
आगे की बात बताने से पहले यह बताना जरूरी है कि शेरू जी बेहद अनुशासन-पसन्द हैं । नियम तोड़ने वालों की वे कपड़े और चमड़ी तक उतार लेते हैं । छोटे-मोटे मुज़रिमों को तो बिना चबाए ही निगल जाते हैं । ये महाशय पहले अपराध-विभाग में जासूस थे ।
बकौल उन्ही के उन्होंने चींटी से लेकर गन्नाचोर हाथी और अण्डाचोर डायनासौर जैसे भारी-भरकम अपराधियों को न केवल पकड़वाया था बल्कि मार-मारकर सीधा भी किया था।
क्या हुआ जो अब उन्हें पूसी और खरगोश के बच्चों की रखवाली का काम सौंपा गया है । क्या हुआ जो अब बड़े-बड़े शिकारियों से भिड़ने की बजाय अमरूद और अनार के फलों को कुतरने आती चिड़ियों और गिलहरियों को हड़काने में लगे हैं,उनका रौब और दबदबा तो वैसा ही है। लम्बे पैने दाँतों को दिखाते हुए पूरा मुँह खोल जो उनका भौंकना शुरु होता है तो लगता है कि टीन शेड पर कोई बड़े-बड़े पत्थर लगातार फेंक रहा हो ।
शेरू के आगे 'मास्टर' लग जाने का कारण यह है कि उन्हें जितना पढ़ने का शौक है उससे ज्यादा शौक पढ़ाने का है। जब और जहाँ भी मौका मिलता है, वे नई जानकारियाँ देने और सवाल करने लग जाते हैं । लोग भरसक बचना चाहते हैं पर कहीं न कहीं तो शेरू जी से सामना हो ही जाता है सो बस गोली दागने की तरह सवाल शुरु । जैसे---
"बताओ उस पेड़ तक पहुँचने तक कम से कम कितनी गिनतियाँ गिन सकोगे?"
"बबूल के पेड़ में फूल आने के सात-आठ महीने बाद फलियाँ आतीं हैं । बताओ बबूल की इस सुस्ती का क्या कारण है?"
शेरू जी का मानना था कि इस तरह से लोगों का सामान्य ज्ञान आसानी से बढ़ सकता है ।
अनार के पेड़ की तरफ आने वाले को शेरू जी के सवालों का जबाब देना खास तौर पर जरूरी था। हाँ कभी-कभी जब कोई शेरू मास्टर के सवालों के जबाब देते देते शिकायत करने लगता कि--
"शेरू दादा देखो मिट्ठू अनार लेगया । आपने उसे तो नही रोका ।"
"शेरू काका वह चिडिया बिना पूछे ही टहनी पर बैठ गई । आपने उससे तो कोई सवाल नही किया..।"
तब शेरू जी बेवशी छुपाकर कहते--"अब चोर उचक्कों के लिये क्या ताला और क्या पहरा । जिस दिन हाथ आगए तो नानी याद करा दूँगा हाँ..।"
     
हाँ तो छुटकी अनार के पेड़ की ओर अपनी धुन में चली जा रही थी कि उसे शेरू ने टोक दिया । छुटकी को उसे अनसुना कर आगे बढ़ने में ही खैर लगी पर तभी शेरू की गरज से आसपास की दीवारें भी बज उठीं ।
"ए ! ए ! कौन है तू ? मेरी बात सुने बिना कहाँ जाती है ?"
इतनी खौफनाक आवाज से छुटकी हड़बड़ा गई और जल्दी से बोली--"मैं ..मैं छुटकी हूँ ।"
"मैंने तेरा नाम नही पूछा कमअक्ल! इधर कहाँ चली जाती है बिना पूछे ?और बता ,कौनसी कक्षा में पढ़ती है ?"
"कक्षा ? यह क्या पूछ रहे हैं महाशय?"--छुटकी अचकचाई  
पढ़ाई-लिखाई से तो उसका दूर दूर तक का वास्ता नही था । कभी स्कूल की सूरत तक नही देखी थी। पर यह कहना भी आफत को बुलावा देना होगा ।अनपढ़ रहने के तमाम नुक्सान बताने के साथ  तुरन्त पढ़ाने बैठ जाएंगे शेरू मास्टर। लेकिन चुप रहना भी तो खतरनाक था इसलिये बिना कुछ सोचे उसने पहले वाला ही जबाब दोहरा दिया--"मैं छुटकी हूँ ।"
"भुलक्कड़ गिलहरी ,नाम तो तू पहले ही बता चुकी है । बार-बार बताना जरूरी नही है । खैर ,बता कनेर के फूलों का रंग लाल होता है कि पीला ?"
"कनेर ? लाल-पीला ?"---छुटकी का दिमाग चकराया । बेकार ही उसने अनार खाने का विचार किया था । कनेर का पेड़ तो उसने कभी नही देखा था। देखा भी होगा तो याद नही । पर इस बात को वह कह नही सकती थी। शेरू मास्टर उसकी पूँछ खींचते हुए कनेर का पेड़ दिखाकर ही मानेंगे । उसने अपना कुछ दिमाग चलाया और बोली--"शेरू दादा मैं गोलू गिरगिट नही छुटकी गिलहरी हूँ ।"
"गिरगिट ? यह मैंने कब कहा?" शेरू का दिमाग चकराया । छुटकी जो पहले घबरा रही थी , अब अनजान बनी उसे उलझाए रखने का आनन्द लेने लगी।
"अच्छा यह बता ,अनार में दाने नही होते तो क्या होता ?"
"क्या होता ,यह कैसा सवाल है ?" उसने सोचा और जबाब दिया--"कितनी बार कह चुकी हूँ कि मैं छुटकी हूँ चुलबुल चुहिया नही ।"
"फिर ..फिर वही बात?" शेरू को अब ताव आया--"सुन गिलहरी तू बहरी है क्या ? मेरे सवालों के जबाब दिये बिना तू आगे नही बढ सकती । समझी । ....चल बता तारे क्या चाँद के बच्चे हैं । अगर बच्चे हैं तो कभी बडे क्यों नही होते ?"
"शेरू दादा! लगता है आपके कानों ने काम करना बन्द कर दिया है। भला कोई भी बात आप सुन समझ नही सकते । किसी डाक्टर को दिखालो
अभी आपकी उम्र भी क्या है?"
"तू ठीक कहती है"-शेरू कुछ नरम पडा पर अगले ही पल उसे ध्यान आया कि वह गिलहरी को रोकने ही खड़ा है।
"लेकिन कम सुनाई तो तुझे देता है। मेरे सामने चालाकी नही चलेगी ।"
"मैं छुटकी हूँ शेरूदादा। नीटू नेवला नही ।किसी से भी पूछलो "-- यह कहती हुई छुटकी पेड की ओर चली ।
"ए ,ए ,ए !--शेरू ने टोका तो वह वही ठहर गई ।शेरू ने गहरी नजरों से परखा देखा --काली-काली आँखों में चालाकी नही भोलापन है । उसके होंठ फड़क रहे हैं । शायद ..शायद नही निश्चित ही डर की वजह से । काली धारियों वाली सुन्दर पीठ को उभारकर, झबरी पूँछ को नीचे दबाए वह अनजान सी उसे देख रही है ।
"च्च..च्च बेचारी इतनी सुन्दर और प्यारी नन्ही गिलहरी बहरी भी होगई ।"--शेरू का मन पिघलते मक्खन सा होने लगा ।
"अच्छा अनार खाना है पर ध्यान रहे लौटकर मुझे बताना कि कितने अनार पक गए हैं और कितने कच्चे हैं । और...।"
फिर तुरन्त ही उसे ध्यान आया कि यह सब उसे कहना बेकार ही है । वह प्यार से उस शरारती और चालाक गिलहरी को देख रहा था जो उछलती कूदती शेरू को देख देखकर कह रही थी--"मैं तो छुटकी हूँ ।"

     ( मई 2003 चकमक में प्रकाशित)