रविवार, 27 अप्रैल 2014

मच्छर जी !

सुनो-सुनो ओ मच्छर जी !
हो तुम कितने निष्ठुर जी !
बातों-बातों में ही तुमने
मारे डंक बहत्तर जी ।

नन्हे नाजुक लगते हो,

पर दिल के पूरे पत्थर जी ।
दया-धरम का पाठ पढे ना 
हो तुम निपट निरक्षर जी ।

पढने दो ना लिखने दो
ना कहीं चैन से सोने दो ।
करके रखा नाक में दम 
यह ठीक नहीं है मिस्टर जी ।

कछुआ -वछुआ मार्टिन-आर्टिन

सब उपाय बेकार हुए
मच्छरदानी में भी घुस आते हो
कितने मट्ठर जी !

हमें जरा समझाओ, अपनी 
अकल खारही चक्कर जी 
क्या मिलता है तुम्हें खून में
घुली हुई क्या शक्कर जी ?

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

रात-रात में ही !!


कल तक थीं टहनी पर ,
कलियाँ जोई-मोई सी ।
अभी-अभी जन्मे शिशु जैसी 
सोई--सोई सी ।
लेकिन देखा सुबह सभी मिल ,
पलक खोल हँसतीं थीं 
खिल--खिल ।
झिलमिल तितली से 
घुलमिल कर
बतियाना भी सीख गईं लो !
रात-रात में ही ...।

हमने देखा ,सूरज पश्चिम

शाम किले के पीछे ।
बाँध पोटली धूप ,
और फिर....
 उतर गया वह नीचे ।
अरे ..सुबह पूरब में कैसे ,
झाँके पीपल के पीछे से ।
इतना चलकर आया कैसे ,
रात-रात में ही ...।

गोल-गोल अमरूद एक ,

जो टहनी में लटका था ।
गदराया था ,
पक जाने तक 
मन उसमें अटका था ।
देखा सुबह लगा वो झटका ,
आँखों में काँटा सा खटका ,
था अमरूद खोखला लटका ।
"कौन कुतर कर इसे खागया ,
रात--रात में ही ..।"