मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

माँ

वह बहुत ही सर्द सन्नाटे से भरी रात थी .सर्दी के आतंक से सड़कें ,गलियां सहमी और खामोश थीं. पेड़-पौधे कोहरे की चादर में लिपटे थे फिर भी काँप रहे थे . बाहर लॉन में यूकेलिप्टस के पत्ते आंसू बहा रहे थे .यह सब देख जैसे सितारे भी थरथरा उठे थे .
उस समय रात के लगभग साढ़े बढ़ बजे होंगे . लेकिन श्रीमती वर्मा अभी तक जाग रही थी और नीद की प्रतीक्षा उसी तरह कर रही थीं जिस तरह प्लेटफार्म पर कोई यात्री लेट हुई ट्रेन की प्रतीक्षा करता है .
श्रीमती वर्मा की नींद उड़ने का कारण कोई चिंता भी हो सकती थी और कड़ाके की सर्दी भी, जो  परीक्षा में ड्यूटी देने वाले मास्टरजी की तरह सब जगह कड़ी नजर जमाए थी.
लेकिन वास्तव में उनकी नींद उड़ने का कारण किवाड़ की दरार से आती पतली सी आवाज थी—कूं..कूं ..कूं .. जो क्रमशः कातर होती जाती थी .
यह कम्बख्त तो फिर लौट आया शायद —श्रीमती वर्मा ने कुढ़ते हुए सोचा .
  कितना ढीठ है जरा सा पिल्ला ? खुद इतनी दूर छोड़कर आई थी फिर भी सूंघ-सांघकर  लौट आया मरा . यह सारी  करामात दीपू की है .   
दीपू श्रीमती वर्मा यानी शोभादेवी का भांजा है .बड़ी ननद ने यहाँ पढ़ने के लिए भेजा है पर इसे शोभादेवी ही जानती हैं कि दीपू का मन पढाई में कम और कुत्ता-बिल्ली के बच्चों से खेलने और और गिलहरियों को चना मूंगफली खिलाने ज्यादा लगता है . कही किसी पेड़ पर कोई घोंसला दिख गया तो समझो उसका दिन वहीँ बीतना है .यही वजह है कि पढाई के बहाने दीपू अक्सर सक्सेना जी के बगीचे में जा बैठता है .
शोभादेवी को दीपू के इन शौकों से कोई खास आपत्ति नहीं है लेकिन घर में किसी जानवर के बच्चे ,खास तौर पर कुत्तों को लाने की सख्त मनाही है क्योंकि वह काफी सफाई-पसंद महिला है .
लेकिन पिल्लों को देख दीपू का खुद पर काबू नहीं रहता है .मामी की वर्जना के बावजूद उसके साथ कोई न कोई पिल्ला या किसी जानवर का बच्चा देखा जासकता है .
उस दिन भी ,यह जानते हुए भी कि पिल्ले को देख मामी का पारा चढ़ जाएगा ,वह एक काले गोल-मटोल गुलफुले से पिल्ले को ले आया .मामी ने देखते ही आदेश सुनाया – घर में आना है तो इसे कही बाहर छोड़कर आ .नहीं तो तू भी इसके साथ गलियों में भटक .मैं जीजी से कह दूंगी कि...
मामी ! मेरी बात तो सुनो प्लीज ..—गजब का ढीठ है दीपू भी .डरने का अभिनय करता हुआ पिल्ले को लिए ही अंदर आगया .
मैं तुम्हें नाराज नहीं करना चाहता था मामी सच्ची , विद्या-कसम लेकिन क्या है कि यह बेचारा तीन दिन से भूखा है .कोई बेरहम इसकी माँ को कुचलकर भाग गया .बेचारा उसी जगह बैठा जोटा रहता है . मामी मैं इसे छोड़ आऊंगा सच्ची ,बस जरा सा दूध दे दो .
शोभादेवी ने दूध इस शर्त पर दिया कि दीपू आज ही अभी उसे कही दूर छोड़ आएगा.
 एक बार लपक गया तो जाने के नाम भी नहीं लेगा यह .देखो न दूध को कैसे लपलप करके पी  गया .
शर्त के अनुसार दीपू पिल्ले को छोड़ आया पर शाम को वह घर की चौखट पार कर रहा था .
मैं दीपू की चालबाजी खूब समझती हूँ .जरुर यही-कही छोड़कर आया होगा जानबूझकर . –शोभादेवी ने अपने पति श्री वर्माजी को बताया और कहा— मुझे दीपू पर जरा भी भरोसा नहीं . आप खुद इसे कही दूर छोड़कर आना .
वर्माजी पत्नी के निर्देशानुसार उस पिल्ले को दूर किसी गली में छोड़ आए  पर यह क्या, दो दिन बाद वे महाशय शान से वर्माजी के द्वार की तरफ चले आ रहे थे . यह देख शोभादेवी ने अपना माथा पीट लिया . मारे खीज के उसे पैर से दूर धकेला ,मन ही मन दीपू को बुरा भला कहा और फिर खुद जाकर उसे  स्टेशन के उस पार एक नाले के किनारे छोड़ आई .
अब नहीं आएगा—शोभादेवी ने तब इत्मीनान से सोचा था .

लेकिन मैं तो आ गया .---बाहर से लगातार आ रही कूकने की आवाज जैसे यही कह रही थी .   
 आ गया है तो मर —शोभादेवी ने रजाई को चारों ओर से दबाते हुए अपने आपको मुक्त किया  . 
रात के साथ सर्दी की भी गहराई बढती जा रही थी .दीपू और वर्माजी गहरी नींद में थे पर शोभादेवी कुछ ज्यादा ही सर्दी महसूस कर रही थीं .रजाई के अंदर भी हाथ-पाँव जमे जा रहे थे .
जब अंदर कमरे में , रजाई के भीतर यह हाल है तो बाहर क्या होगा ? कही वह ठिठुरकर मर-मरा न जाए
इस विचार के बाद वह लेटी न रह सकी .किवाड़ खोलकर देखा .पिल्ला दीवार से चिपका काँप रहा था .मानो ठण्ड से बचने दीवार के अंदर घुस जाना चाहता हो . उसका कूकना धीमा होगया था जैसे बहुत रो लेने पर बच्चा निढाल हो जाता है .
शोभादेवी ने पिल्ले को उठाकर शाल में लपेट लिया . और रजाई में दबा दिया . उन्हें महसूस हुआ कि नन्ही सी धडकनों से उसका कोमल शरीर हिल रहा था . हल्की सी घुरघुराहट उसकी राहतभरी नींद की सूचना थी .
अब शोभादेवी को नींद आने लगी थी .    


गुरुवार, 13 नवंबर 2014

अलविदा -दूधिया दाँत

14 नवम्बर 2014
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पूरा पक जाने पर टपके टहनी से ज्यों आम ।
पूरी खिलकर ,झट से झर जाएं पाँखुरियाँ  शाम।


छुट्टी मिलते ही शाला से बच्चे दौड़े भागे

 रोज खिसक लेते चन्दा जी ,सूरज जी के जागे ।
ऐसे ही अलविदा कह गए छोड़ दूधिया पाँत।
खोल हँसी की खिड़की खिसक गए नटखट दो दाँत ।


मान्या जी थीं हक्की बक्की एक न फूटा बोल । 
जाते जाते दाँत ,खोल गए सबके आगे पोल ।

   


आठ साल की होगई है अब मेरी गुड़िया रानी 
सालों साल सबेरा उसकी लिक्खे नई कहानी ।

मन की महकी फुलबगिया है , आँखों की उजियारी ।
उसकी मीठी बातों में ही ,सिमटी दुनिया सारी ।




मंगलवार, 16 सितंबर 2014

मेरी बकरी

मेरी बकरी
है चितकबरी
पर वह थोडी सी है बहरी।
चाहे कुछ भी उसे सिखालो
वह तो ,मैं....मैं....पर ही ठहरी ।

मेरी बकरी
चटपट चबरी
खाने में पूरी बेसबरी
दिन भर मुँह चलाती रहती
पल-पल पूँछ हिलाती रहती
अचरा-कचरा सब खाजाती
सब्जी -भाजी चना चपाती
छिलका-भूसा चट कर जाती
जहाँ-तहाँ मैंगनी गिराती

मेरी बकरी 
बडी गुनहरी
भोली-भाली सीधी-सादी
तीस मेमनों की वह दादी
जब भी चाहो दूध निकालो
बिना मुसीबत इसको पालो

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

कितने रंग तुम्हारे !


बादल भैया ,
अजब-गजब के हैं ये ढंग तुम्हारे ।
कितने रूप बदलते पल में ,
कितने रंग तुम्हारे ।

 कुल्फी, सॉफ्टी,आइसक्रीम 
तो कभी केक लगते हो 
कभी बाल गुड़िया जैसे ही 
बड़े 'फेक 'लगते हो ।


कभी हिरण ,खरगोश
कभी काले सफेद गुब्बारे ।
कभी भेड--बकरी जैसे ही 
चलते बना कतारें ।
जंगल बाग पहाड़ 
कभी तो महल-दुमहले न्यारे ।। 

भालू बन्दर शेर कभी
लगते हाथी के बच्चे 
या बरखा रानी के हो तुम 
मटके काले कच्चे ।
छूने से ही फूट पड़ें 
फिर छूट पड़ें बौछारें ।।

कभी कपासी और कभी ,
लगते हो तीतरपंखी
कभी सुनहरे लाल कभी 
हो जाते हो नारंगी ।
काजल जैसे भी तो तुम
लगते हो हमको प्यारे ।।



शनिवार, 28 जून 2014

"मैं तो छुटकी हूँ ।"


छुटकी गिलहरी वैसे तो हर समय कुछ भी खाने को तैयार रहती है । ब्रेड,बिस्किट,चना मूँगफली से लेकर सूखी रोटी तक बडे चाव से हजम कर जाती है । कुछ नही तो नीम के तने के खर्पटों में छुपे कीडों के ही खोजती चुनती रहती है । यही नही चाय कॉफी की वह बेहद शौकीन है । धोने के लिये रखे कप-गिलासों को लुढ़काकर तली में पड़ी चाय कॉफी की बूँदों की चुस्कियाँ बडे मजे से लेती है । लेकिन उसे जो सबसे ज्यादा पसन्द है ,वह है पके-अधपके फल कुतरना ।
शाखों पर सरपट दौड़ती और टहनियों व पत्तों में छुपती छुपाती वह कब गदराया फल ढूँढ़ लेती है और कब खोखला कर छोड़ देती है ,कोई नही जान पाता। अपने आपको 'कुतरू-उस्ताद' समझने वाले और आँखों में मिर्च झोंककर फल चुरा लेजाने वाले मिट्ठू जी भी चोंच घिसकर रह जाते हैं।

एक दिन की बात है । इधर-उधर घूमते छुटकी ने अनार का एक पेड़ देखा। वैसे तो अनार का पेड़ उसने पहली बार नही देखा था ,लेकिन बडे-बडे अनारों से इस तरह लदा-फदा पेड़ उसने कभी नही देखा था । उसके लिये बड़ा ही रसभरा अनुभव था । टहनियों में लटके हुए बडे-बडे सुर्ख-सुनहरे अनार मानो झूला झूल रहे थे । उनके बोझ से टहनियाँ उसी तरह झुक गईं थीं जिस तरह बोझ से तराजू का पलड़ा झुक जाता है। ऐसे रसभरे अनारों को देख छुटकी का मुँह पानी से लबालब भर गया।
"इन्हें चखे बिना तो मैं रह ही नही सकती "--छुटकी ने सोचा और फुर्ती से उछलती-छलाँगती अनार के पेड़ की ओर लपकी । तभी एक भारी आवाज ने उसे रोका-"ए !ए !रुक ।"
यह आवाज थी शेरू मास्टर की ।
आगे की बात बताने से पहले यह बताना जरूरी है कि शेरू जी बेहद अनुशासन-पसन्द हैं । नियम तोड़ने वालों की वे कपड़े और चमड़ी तक उतार लेते हैं । छोटे-मोटे मुज़रिमों को तो बिना चबाए ही निगल जाते हैं । ये महाशय पहले अपराध-विभाग में जासूस थे ।
बकौल उन्ही के उन्होंने चींटी से लेकर गन्नाचोर हाथी और अण्डाचोर डायनासौर जैसे भारी-भरकम अपराधियों को न केवल पकड़वाया था बल्कि मार-मारकर सीधा भी किया था।
क्या हुआ जो अब उन्हें पूसी और खरगोश के बच्चों की रखवाली का काम सौंपा गया है । क्या हुआ जो अब बड़े-बड़े शिकारियों से भिड़ने की बजाय अमरूद और अनार के फलों को कुतरने आती चिड़ियों और गिलहरियों को हड़काने में लगे हैं,उनका रौब और दबदबा तो वैसा ही है। लम्बे पैने दाँतों को दिखाते हुए पूरा मुँह खोल जो उनका भौंकना शुरु होता है तो लगता है कि टीन शेड पर कोई बड़े-बड़े पत्थर लगातार फेंक रहा हो ।
शेरू के आगे 'मास्टर' लग जाने का कारण यह है कि उन्हें जितना पढ़ने का शौक है उससे ज्यादा शौक पढ़ाने का है। जब और जहाँ भी मौका मिलता है, वे नई जानकारियाँ देने और सवाल करने लग जाते हैं । लोग भरसक बचना चाहते हैं पर कहीं न कहीं तो शेरू जी से सामना हो ही जाता है सो बस गोली दागने की तरह सवाल शुरु । जैसे---
"बताओ उस पेड़ तक पहुँचने तक कम से कम कितनी गिनतियाँ गिन सकोगे?"
"बबूल के पेड़ में फूल आने के सात-आठ महीने बाद फलियाँ आतीं हैं । बताओ बबूल की इस सुस्ती का क्या कारण है?"
शेरू जी का मानना था कि इस तरह से लोगों का सामान्य ज्ञान आसानी से बढ़ सकता है ।
अनार के पेड़ की तरफ आने वाले को शेरू जी के सवालों का जबाब देना खास तौर पर जरूरी था। हाँ कभी-कभी जब कोई शेरू मास्टर के सवालों के जबाब देते देते शिकायत करने लगता कि--
"शेरू दादा देखो मिट्ठू अनार लेगया । आपने उसे तो नही रोका ।"
"शेरू काका वह चिडिया बिना पूछे ही टहनी पर बैठ गई । आपने उससे तो कोई सवाल नही किया..।"
तब शेरू जी बेवशी छुपाकर कहते--"अब चोर उचक्कों के लिये क्या ताला और क्या पहरा । जिस दिन हाथ आगए तो नानी याद करा दूँगा हाँ..।"
     
हाँ तो छुटकी अनार के पेड़ की ओर अपनी धुन में चली जा रही थी कि उसे शेरू ने टोक दिया । छुटकी को उसे अनसुना कर आगे बढ़ने में ही खैर लगी पर तभी शेरू की गरज से आसपास की दीवारें भी बज उठीं ।
"ए ! ए ! कौन है तू ? मेरी बात सुने बिना कहाँ जाती है ?"
इतनी खौफनाक आवाज से छुटकी हड़बड़ा गई और जल्दी से बोली--"मैं ..मैं छुटकी हूँ ।"
"मैंने तेरा नाम नही पूछा कमअक्ल! इधर कहाँ चली जाती है बिना पूछे ?और बता ,कौनसी कक्षा में पढ़ती है ?"
"कक्षा ? यह क्या पूछ रहे हैं महाशय?"--छुटकी अचकचाई  
पढ़ाई-लिखाई से तो उसका दूर दूर तक का वास्ता नही था । कभी स्कूल की सूरत तक नही देखी थी। पर यह कहना भी आफत को बुलावा देना होगा ।अनपढ़ रहने के तमाम नुक्सान बताने के साथ  तुरन्त पढ़ाने बैठ जाएंगे शेरू मास्टर। लेकिन चुप रहना भी तो खतरनाक था इसलिये बिना कुछ सोचे उसने पहले वाला ही जबाब दोहरा दिया--"मैं छुटकी हूँ ।"
"भुलक्कड़ गिलहरी ,नाम तो तू पहले ही बता चुकी है । बार-बार बताना जरूरी नही है । खैर ,बता कनेर के फूलों का रंग लाल होता है कि पीला ?"
"कनेर ? लाल-पीला ?"---छुटकी का दिमाग चकराया । बेकार ही उसने अनार खाने का विचार किया था । कनेर का पेड़ तो उसने कभी नही देखा था। देखा भी होगा तो याद नही । पर इस बात को वह कह नही सकती थी। शेरू मास्टर उसकी पूँछ खींचते हुए कनेर का पेड़ दिखाकर ही मानेंगे । उसने अपना कुछ दिमाग चलाया और बोली--"शेरू दादा मैं गोलू गिरगिट नही छुटकी गिलहरी हूँ ।"
"गिरगिट ? यह मैंने कब कहा?" शेरू का दिमाग चकराया । छुटकी जो पहले घबरा रही थी , अब अनजान बनी उसे उलझाए रखने का आनन्द लेने लगी।
"अच्छा यह बता ,अनार में दाने नही होते तो क्या होता ?"
"क्या होता ,यह कैसा सवाल है ?" उसने सोचा और जबाब दिया--"कितनी बार कह चुकी हूँ कि मैं छुटकी हूँ चुलबुल चुहिया नही ।"
"फिर ..फिर वही बात?" शेरू को अब ताव आया--"सुन गिलहरी तू बहरी है क्या ? मेरे सवालों के जबाब दिये बिना तू आगे नही बढ सकती । समझी । ....चल बता तारे क्या चाँद के बच्चे हैं । अगर बच्चे हैं तो कभी बडे क्यों नही होते ?"
"शेरू दादा! लगता है आपके कानों ने काम करना बन्द कर दिया है। भला कोई भी बात आप सुन समझ नही सकते । किसी डाक्टर को दिखालो
अभी आपकी उम्र भी क्या है?"
"तू ठीक कहती है"-शेरू कुछ नरम पडा पर अगले ही पल उसे ध्यान आया कि वह गिलहरी को रोकने ही खड़ा है।
"लेकिन कम सुनाई तो तुझे देता है। मेरे सामने चालाकी नही चलेगी ।"
"मैं छुटकी हूँ शेरूदादा। नीटू नेवला नही ।किसी से भी पूछलो "-- यह कहती हुई छुटकी पेड की ओर चली ।
"ए ,ए ,ए !--शेरू ने टोका तो वह वही ठहर गई ।शेरू ने गहरी नजरों से परखा देखा --काली-काली आँखों में चालाकी नही भोलापन है । उसके होंठ फड़क रहे हैं । शायद ..शायद नही निश्चित ही डर की वजह से । काली धारियों वाली सुन्दर पीठ को उभारकर, झबरी पूँछ को नीचे दबाए वह अनजान सी उसे देख रही है ।
"च्च..च्च बेचारी इतनी सुन्दर और प्यारी नन्ही गिलहरी बहरी भी होगई ।"--शेरू का मन पिघलते मक्खन सा होने लगा ।
"अच्छा अनार खाना है पर ध्यान रहे लौटकर मुझे बताना कि कितने अनार पक गए हैं और कितने कच्चे हैं । और...।"
फिर तुरन्त ही उसे ध्यान आया कि यह सब उसे कहना बेकार ही है । वह प्यार से उस शरारती और चालाक गिलहरी को देख रहा था जो उछलती कूदती शेरू को देख देखकर कह रही थी--"मैं तो छुटकी हूँ ।"

     ( मई 2003 चकमक में प्रकाशित)  

रविवार, 27 अप्रैल 2014

मच्छर जी !

सुनो-सुनो ओ मच्छर जी !
हो तुम कितने निष्ठुर जी !
बातों-बातों में ही तुमने
मारे डंक बहत्तर जी ।

नन्हे नाजुक लगते हो,

पर दिल के पूरे पत्थर जी ।
दया-धरम का पाठ पढे ना 
हो तुम निपट निरक्षर जी ।

पढने दो ना लिखने दो
ना कहीं चैन से सोने दो ।
करके रखा नाक में दम 
यह ठीक नहीं है मिस्टर जी ।

कछुआ -वछुआ मार्टिन-आर्टिन

सब उपाय बेकार हुए
मच्छरदानी में भी घुस आते हो
कितने मट्ठर जी !

हमें जरा समझाओ, अपनी 
अकल खारही चक्कर जी 
क्या मिलता है तुम्हें खून में
घुली हुई क्या शक्कर जी ?

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

रात-रात में ही !!


कल तक थीं टहनी पर ,
कलियाँ जोई-मोई सी ।
अभी-अभी जन्मे शिशु जैसी 
सोई--सोई सी ।
लेकिन देखा सुबह सभी मिल ,
पलक खोल हँसतीं थीं 
खिल--खिल ।
झिलमिल तितली से 
घुलमिल कर
बतियाना भी सीख गईं लो !
रात-रात में ही ...।

हमने देखा ,सूरज पश्चिम

शाम किले के पीछे ।
बाँध पोटली धूप ,
और फिर....
 उतर गया वह नीचे ।
अरे ..सुबह पूरब में कैसे ,
झाँके पीपल के पीछे से ।
इतना चलकर आया कैसे ,
रात-रात में ही ...।

गोल-गोल अमरूद एक ,

जो टहनी में लटका था ।
गदराया था ,
पक जाने तक 
मन उसमें अटका था ।
देखा सुबह लगा वो झटका ,
आँखों में काँटा सा खटका ,
था अमरूद खोखला लटका ।
"कौन कुतर कर इसे खागया ,
रात--रात में ही ..।"

रविवार, 16 मार्च 2014

होली, होली, होली ।

सुबह -शाम सिन्दूरी हो  लीं ।
होली, होली, होली  ।
आँगन धूप झाँक कर बोली , 
होली, होली, होली ..।

खुलीं ,खिलीं कचनारी कलियाँ।
चीं चीं...चूँ,चूँ ..गाऐं चिडियाँ।
हुल्लड करती हरियल-टोली,
होली , होली , होली ,।

सरसों को रँग दिया वसन्ती ,
पीली ,लाल हुई सेवन्ती ।
टेसू ने लो केसर घोली --
होली , होली , होली ।

 जी भर बौराई अमराई ,
बेरों ने खुशबू फैलाई ।
है शहतूत शहद की गोली -
होली , होली , होली ।

हवा झूमती सी लहराती ,
झूम-झटक पेडों को जाती ।
उसके पास गुलाल न रोली -
होली , होली , होली ।

बगुला जी रंगों से बचने ,
नदी किनारे पहुँचे छिपने ।
दे पिचकारी मछली बोली--
होली , होली , होली ।

छुप ना कोयल बाहर आ री ,
तुझ पर रंग चढेगा क्या री ।
खुल कर करले हँसी ठिठोली--
होली , होली , होली ।
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