बुधवार, 12 जून 2013

पेड किसका है ?

यह कहानी वैसे तो चकमक, मिट्टी की बात ( कहानी संग्रह एकलव्य) तथा बाल भास्कर में आ चुकी है लेकिन आपके पढे बिना बात अधूरी है । इसलिये इसे यहाँ भी दे रही हूँ । आप पढें और अपनी राय भी जरूर दें ।
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एक शाम जब सारा आसमान लौटते हुए पंछियों के कोलाहल से गूँज रहा था और सूरज अपनी किरणों के जाल को पहाडों व पेडों की फुनगियों से समेट कर क्षितिज के पार जाने की तैयारी कर रहा था ,तब नीम के पेड पर बैठे पक्षी व गिलहरियाँ एक खास मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे । मुद्दा था --'एक अकडबाज बुलबुल का ,जो आँगन में खडे नीबू के पेड पर अधिकार के साथ घोंसला बना कर रह रही थी ।'
"कितना घमण्ड है उस जरा सी चिडिया को । सीधे मुँह बोलना ही नही चाहती किसी से ।"--नन्ही गौरैया ने मारे गुस्से के एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकते हुए कहा ।
"तुम बात करने का रोना रो रही हो नन्ही ---गुलबी मैना अपनी पीली चोंच साफ करके बोली---"वह तो हमारी तरफ देखना तक पसन्द नही करती । हमें देखते ही कैसी बुरी सूरत बना लेती है ! मारे गुस्से के सिर के बाल खडे हो जाते हैं और मीठी आवाज भी एकदम कर्कश होजाती है ।"
"अरे ,तो फिर मुझसे पूछो कि मुझ पर क्या गुजरी ।"---- छुटकी गिलहरी ,जो पिछले पैरों पर बैठी दोनों हाथों में अमरूद थामे कुतर रही थी , आगे आकर बोली---"मैं तो उधर अमरूद तलाशने गई थी कि वह अचानक चीखती हुई मेरे पीछे आई । मैं तो घबरा कर डाली से नीचे ही गिर पडी । मेरे बदन में अभी भी दर्द है ।"
सब बढा--चढा कर अपनी व्यथा-कथा सुना रहे थे । कालू कौवा जो अब तक सबकी बातें ध्यान से सुन रहा था भारी आवाज में बोला-----"ये मीठा बोलने वाली चिडियाँ तो होतीं ही हैं स्वार्थी व धोखेबाज । कोयल को ही देखलो । सारी दुनिया उसकी मीठी आवाज के गीत गाती है ।पर यह कौन मानेगा कि वह चालाकी से अपने अण्डों की देखभाल हमसे करवाती है । हम तो उन्हें अपना समझ कर प्यार से सेते और पालते हैं पर बच्चे भी पूरे चालाक होते हैं । हम असलियत समझें इससे पहले ही वे उड जाते हैं । बुलबुल उनसे कैसे अलग हो सकती है ! मैं सबकी आलोचना से डरता हूँ वरना मजा चखाता उस बदतमीज बुलबुल को । उसे खदेडने में मुझे पल भर भी नही लगता ।"
"लेकिन अब क्या किया जासकता है ? अब तो उसने घोंसला बना लिया है । शायद बच्चे भी हैं ।"---पंडुकी बोली । उसे लडाई--झगडे की बात से जरा डर लगता है । 
"तो क्या हुआ !"--कालू सख्ती से बोला ---"जब वह हमारे पेड पर रह कर हमें आँखें दिखा सकती है तो हम उसे खदेड नही सकते क्या ?"
"कालू दादा ठीक कह रहे हैं "--गुलबी ने समर्थन किया ---"बुलबुल तो बागों में रहने वाली चिडिया है । हमारे घरेलू पेडों पर भला उसका क्या हक है ! फिर रहे तो रहे ,पर अकड भी दिखाए !"
"अजी रहे भी क्यों ?"---छुटकी ने जोर देकर कहा । वह चोट व अपमान के लिये बुलबुल को माफ नही कर पा रही थी ।
"ठीक है । बुलबुल को सबक सिखाना जरूरी है ।" 
इस तरह निर्विरोध ही यह प्रस्ताव पास होगया ।
 जिस समय यह प्रस्ताव पास हो रहा था ,बुलबुल अपने घोंसले में बच्चों को दाना चुगा रही थी । वह बारी-बारी से तीनों की चोंच में चुग्गा डाल रही थी पर उन्हें सब्र कहाँ था । वे गर्दन ताने ,चोंच फाडे बार-बार चुग्गा माँगे जारहे थे । उनमें एक बच्चा ज्यादा चुलबुला और भुक्खड था । हर बार चोंच बढा कर माँ से दाना छीन लेता था । इसलिये वह दोनों की तुलना में कुछ बडा व सेहतमन्द दिखने लगा था ।
उसे घोंसला भी छोटा और उबाऊ लगने लगा था इसलिये वह घोंसले से बाहर निकल कर उडने के मनसूबे भी बनाने लगा था । दूसरे दोनों बच्चे भी कमजोर होने के बावजूद भाई की नकल करते थे । उनके पंख अभी उग ही रहे थे पर उन्हें ही फडफडाकर उडने का शौक पूरा करने लगे थे । और माँ के लाख समझाने पर भी वे कुछ न कुछ बोलते रहते थे---"माँ आसमान कितना बडा है ? माँ बाहर दुनिया खूब बडी और खूबसूरत होगी न ! माँ हमारे पंख कब बडे होंगे ? हमें जल्दी उडना है । माँ हमें खुद ही कब चुग्गा तलाश करने दोगी ..यहीं बैठे-बैठे खाते ऊब गए हैं माँ...!"
"अभी कुछ दिन और तसल्ली करलो मेरे नन्हे -मुन्नो !" बुलबुल अपने बच्चों की बातें सुन कर फूली नही समाती थी । बच्चों से बोलते समय तो उसकी आवाज बेहद से बेहद मीठी हो जाती थी । 
"तुम जल्दी ही उडोगे भी और दुनिया भी देखोगे मेरे बच्चो ! पर अभी कुछ दिन मेरे साथ भी तो गुजार लो मेरे लाडलो !"
बच्चों की बातें सुन कर बुलबुल निहाल तो होती थी पर साथ ही कई आशंकाओं से भी घिर जाती थी । पता नही उसके शिशुओं पर कब कौन सी मुसीबत आ जाए । पन्द्रह दिनों तक तो किसी को हवा तक नही लगी थी कि एक छोटे से घोंसले में एक नही तीन--तीन अण्डे सेये जा रहे हैं पर जब अण्डों को फोड कर बच्चे निकले तो बुलबुल की मुसीबत होगई । अब क्या वे अण्डे थे जिन्हें बुलबुल छाती के नीचे दबाए रखती । आँखें भी नही खुलीं थीं कि नटखट बच्चों की चीं चीं...चूँचूँ शुरु होगई थी । और फिर हुआ वही जिसका बुलबुल को डर था । कितनी ही चिडियाँ पेड के आसपास चक्कर काटने लगीं । और किसी न किसी बहाने बात करने की कोशिश करने लगीं --"कि अरे बुलबुल जी ! आजकल बडा शोर मचा रहता है । क्या तुम्हारे यहाँ मेहमान आए हुए हैं ?"...कि तुम तो फूलों में रहने वाली हो फिर यह हमारा काँटेदार पेड कैसे भा गया बुलबुल रानी ?" कि बुलबुल जी सुना है कि तु्म्हारी आवाज बहुत मीठी है । कोई गीत सुनाओ न !" 
जब ये बातें होती तब कालू भी किसी न किसी बहाने वहीं काँव--काँव करता हुआ मँडराता रहता था । बुलबुल  खतरे के बारे में सोचती और किसी तरह उसे टालने के लिये विनम्रता के साथ कहती----"मैं जरा व्यस्त हूँ । फिर कभी आना ।"
लेकिन उस समय न चाहते हुए भी उसकी आवाज रूखी व कठोर हो जाती थी ।
"इतना घमण्ड....!"  क्या हम सबको नही सोचना चाहिये कि बुलबुल का यह बर्ताव न केवल बदतमीजी  भरा है ,बल्कि यह हम सबका अपमान भी है ।
और इसके बाद आनन--फानन में बुलबुल को भगाने की योजना बन गई । इसकी जिम्मेदारी कालू को सौंपी गई । भूखा क्या चाहे ,भरपेट भोजन । कालू तो न जाने कब से इसी मौके के इन्तजार में था । बुलबुल ने कई बार उसे भी बुरी तरह खदेड दिया था । लेकिन वह बुलबुल का कुछ भी नही बिगाड पाया था । यह मौका पाकर उसका मन नए बछडे की तरह कुलाँचें भरने लगा । उत्साह को दबाते हुए बोला---"आपने मुझे इसके लायक समझा इसके लिये शुक्रिया । मैं इसे निभाने की पूरी कोशिश करूँगा और क्या कहूँ ।"  
दूसरे दिन जब सूरज की किरणें पत्तों पर थिरकने लगीं , पक्षी स्कूल से छूटे बच्चों की तरह चहकते हुए भोजन की तलाश में निकल गए और पेडों पर गिलहरियों की किट्..किट्..कुट्..कुट्..शुरु होगई मानो छैनी--हथौडा लेकर कोई पत्थर तराश रहा हो । तब बुलबुल ने चुग्गा लेने जाने से पहले अपने बच्चों को रोज की तरह ही नसीहतें दीं कि घोंसले से बाहर मत झाँकना । चहचहाने और उडने की इच्छा को फिलहाल दबा कर ही रखना । कोई खतरा हो तब जरूर मुझे जोर से पुकार लेना । मैं आसपास ही कुछ कीडे चुन कर आ जाऊँगी । और उड गई । 
कालू ने मौका देखा और चुपके से बुलबुल के घोंसले तक पहुँच गया । हालाँकि घनी पत्तियों व काँटेदार टहनियों में उसे खासी दिक्कत हुई लेकिन घोंसले में जो नरम-गरम बच्चे देखे तो मुँह में पानी आगया और मुँह से बरबस ही निकल पडा---"वाह क्या बात है !"
"कौन है ?" --तीनों बच्चे चौकन्ने होगए । कालू को लगा जैसे उसकी चोरी पकडी गई । वह दो कदम पीछे हट गया ।
"अरे ,डर लगा क्या ?"---बडा बच्चा गर्दन उठा कर सीना फुलाने की कोशिश करते हुए बोला । 
"यहाँ डर की कोई बात नही है ।"
"अभी हमारी माँ भी नही है । तुम हमसे दोस्ती करोगे ?"--बीच वाला बच्चा आगे आकर बोला । 
"दोस्ती !!"--कालू चौंका ।
"हाँ , दरअसल हमें एक दोस्त की सख्त जरूरत है जो बहादुर और ताकतवर हो । हमें आसमान की सैर कराए । हमसे खूब सारी बातें करे । और..."----बडे बच्चे ने अपनी बात पूरी भी न की थी कि छोटा बच्चा बीच में से निकल कर आगे आगया और बोला--
"क्या है कि हमारी माँ हमें न तो जोर से बोलने देती है न ही घोंसले से बाहर निकलने देती है ।लेकिन हम खूब गाना चाहते हैं । उड कर दूर तक सैर करना चाहते हैं । क्या आप हमारी मदद करेंगे ?"  
कालू हैरान । बच्चे निर्भीकता से बोले जा रहे थे । उन्हें न किसी खतरे का अहसास था न मुसीबत की चिन्ता ।
"ऐसे में इन पर वार करना तो बेहद शर्मनाक होगा "--कालू ने सोचा । बच्चों का बोलना जारी था---"हमारी माँ कहती है कि यहाँ हमारे कई दुश्मन हैं जो हमें नुक्सान पहुँचा सकते हैं । लेकिन हमें यकीन नही होता । और आप तो हमें बडे बहादुर लगते हैं । माँ कहती है कि जो बहादुर होते हैं वे बच्चों को कोई खतरा नही पहुँचाते । है न ?"
"हाँ...हाँ ..।" कालू की जुबान सूखने लगी । या बोलने के लिये उसे शब्द नही मिल रहे थे ।
"कालू ! तुम वहाँ क्या कर रहे हो ? हम जानने के लिये बेचैन हैं । जल्दी अपना काम करो और वापस आओ ।"
नीम के पेड पर बैठे पक्षी व गिलहरियाँ कालू को लगातार पुकार रहे थे पर कालू बुलबुल के तीनों बच्चों की बातों में खोया था जो बडे प्यार से उसे दोस्त बनाने को आतुर थे । उस समय कालू को अपना इरादा काफी घटिया लगा और काफी थकी-थकी सी आवाज में बोला ---"अच्छा चलता हूँ । फिर मिलेंगे ।"
"ठीक है लेकिन कल जरूर आना । हम इन्तजार करेंगे ।"
तीनों बच्चों की नन्ही आवाजें कालू का पीछा करती रहीं । वह जैसे जान छुडा कर मुश्किल से नीम के पेड तक आ पाया ।
"तुम कामयाब नही हुए ।"--नन्ही गौरैया ने शरारत से कहा ---"तुम्हारी सूरत बता रही है ।"
"कालू दादा तुम तो ऐसे बैठे हो जैसे बुलबुल ने तुम्हें पीट-पीट कर भगा दिया हो ।"---गुलबी मैना बोली । ऐसे में छुटकी भला पीछे कैसे रहती । चुटकी लेते हुए बोली---"लगता है तुम बुलबुल से हार गए ।"
"बुलबुल से नही बेवकूफ गिलहरी ...उसके नन्हे बच्चों से ,जिनके अभी ठीक से पंख भी नही उगे हैं ।
यह नही हो सकता "--सबने अविश्वास से कहा ।
"यही हुआ है "--कालू बहुत धीमे व कोमल स्वर में बोला---"मैंने तो तय किया है कि जब तक घोंसले में बच्चे हैं तब तक यह पेड उन्ही का है । आप जो भी सोचें ।"
"हमारे पास भी इससे अलग सोचने कुछ नही है-"--सब एक साथ बोले और पुलकित होकर घोंसले से आती नन्ही आवाजों को सुनने लगे ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. जो जितना नया है जगत में, जिसे जितना अधिक जीना है जगत में, उसका उतना ही अधिक अधिकार है जगत में। सुन्दर कहानी।

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  2. दीदी,
    मज़ा आ गया कहानी को पढकर.. कम से कम इस ब्लॉग के कारण वो निधि जो बरसों से बैंक के लॉकर में बंद थी, सूद सहित वापस मिल गयी है.. हमारा बचपन.. बहुत प्यारी कहानी..
    कहानी का आकर्षण प्रत्येक विवरण के साथ उत्तरोत्तर बढाता ही जाता है और अंत में जिस प्रकार आपने क्लाइमैक्स गढा है, वह होठों पे मुस्कान और ह्रदय में ममता की गुदगुदी छोड़ जाता है.
    इस कथा के परिप्रेक्ष्य में जब आतंकवाद को देखता हूँ तो लगता है कि वे तो उस चांडाल कौवे से भी गए गुज़रे हैं जिन्हें मासूमों पर भी दया नहीं आती!!
    आपने तो यह गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया है - कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!!

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  3. बहुत बढ़िया कहानी...बहुत सुन्दरता से इसका ताना-बाना बुनते हुए इसकी रचना की गयी है...बहुत-बहुत बधाई...

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  4. अच्छी कहानी। हालांकि इसका प्रारम्भ बहुत ही नकारात्मक और बुराईयों से भरा हुआ लगता है। लेकिन पढ़ते-पढ़ते सारी बातें समझ में आने लगती है। वैसे यह जरूरी भी नहीं कि हम समाज का आदर्श रूप ही दिखाये। समाज में नकारात्मक और आलोचनात्मक तथा जलन से भरा माहौल तो है ही। फिर अंत भला तो सब भला। हां। वाक्य कहीं कहीं और सरल हो सकते थे। वैसे मैं अच्छी है कह कर आगे निकल जाता लेकिन मुझे लगा कि मुझे अपने मन की बात कहनी ही चाहिए। एक बात और संवादों में तल्खी न भी हो तो भी चरित्र-चित्रण अच्छा-बुरा बन जाता है। फिर शायद-शायद कह रहा हूं कि शायद तब नफरत भरे वाक्य हम पात्रों से क्यों कहलवाये? वैसे रचनाकार का अपना नजरिया अपना होता है। आशा है अन्यथा न लेंगी। सादर,

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    1. मनोहर जी आपको इसमें कुछ नकारात्मक व बुराई भरा लगा यह जान कर खेद हुआ ।

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  5. वाह..
    बहुत सुंदर कहानी , बधाई आपको !

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  6. बहुत बढ़िया कहानी। मुझे लगा जैसे मैने इसे पहले भी पढ़ा है, यहीं अंतर्जाल में कहीं..!

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    1. कहाँ पढी होगी आपने यह कहानी । याद करिये । क्योंकि अन्तर्जाल पर मैंने केवल यहीं प्रस्तुत की है । हाँ बालभास्कर चकमक तथा एकलव्य के ही कहानी संग्रह मिट्टी की बात में अवश्य आई है और प्रशंसा भी पाई है । यदि किसी ने मेरी जानकारी के बिना कहीं दी है तो वह निश्चित ही ठीक नही है ।

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  7. आपने जिस प्रेम और स्नेह के साथ पाटी पर शब्द अंकन किए हैं उसके प्रतिउत्तर में भी मैं कुछ कह पाने में असमर्थ हूँ और मुझे इस बात के लिए भी माफ कीजिएगा कि दब मैंने कल पूरा विहान देर रात तक सुबह ५ बजे तक पढा तब मैं आपकी कई सारी रचनाओं पे प्रतिक्रिया नहीं कर सका वो बस इसलिए नहीं कर सका कि मैने पढी नहीं वो इसलिए नहीं कर सका कि मैं अबोध बालक इतना असहाय हो गया अापकी कुछ कुछ रचनाओं को पढकर कि बस मौन रह गया आप निश्चन्ति रहिए मैंने पूरा विहान शब्द २ पढा है और यकीन मानिए कि जब भी मैं इतना अच्छा कुछ लिखा पाता हूँ तो हमेशा ही ये ख्याल आता है कि इतना कुछ तो रह गया है पढने को तो फिर मैं लिखूं क्यूँ और तब सच में मैं महीनों कुछ नहीं लिख पाता
    पेड किसका है के अलावा लगभग सारी कहानियाँ कविताएँ इतनी सुन्दर हैं कि सच में मैं खुद को प्रतिक्रिया देने के लायक नहीं समझता सादर प्रणाम अपना वात्सल्य बनाए रखिएगा

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  8. प्रिय विकास ,आपने ब्लाग सारी रचनाएं एक साथ पढ़ डालीं हैं ! यह जानकर किसी भी रचनाकार को हर्ष व विस्मय हो सकता है .दरअसल यही सफलता है रचना की .
    आपने लिखा है कि मैं क्यूँ लिखूँ , यह आपका मेरी रचनाओं के सम्मान में उद्गार है फिर भी ऐसा सोचना ठीक नही क्योंकि सबकी अभिव्यक्ति अलग और विशिष्ट होती है . यकीनन आपके पास अभिव्यक्ति की सशक्त क्षमता है उसे जरूर सार्थकता के साथ उपयोग में लाते रहिये . मेरी रचनाओं के प्रति जो आपका भाव है उसे धन्यवाद कहकर हल्का न करूँगी . आप लिखते और पढ़ते रहिये . हाँ निष्पक्ष आलोचना भी अवश्य क्योंकि एक अच्छे पाठक की राय रचनाकार को कुछ अलग सोचने पर विवश करती है .

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