कल तक थीं टहनी पर ,
कलियाँ जोई-मोई सी ।
अभी-अभी जन्मे शिशु जैसी
सोई--सोई सी ।
लेकिन देखा सुबह सभी मिल ,
पलक खोल हँसतीं थीं
खिल--खिल ।
झिलमिल तितली से
घुलमिल कर
बतियाना भी सीख गईं लो !
रात-रात में ही ...।
हमने देखा ,सूरज पश्चिम
शाम किले के पीछे ।
बाँध पोटली धूप ,
और फिर....
उतर गया वह नीचे ।
अरे ..सुबह पूरब में कैसे ,
झाँके पीपल के पीछे से ।
इतना चलकर आया कैसे ,
रात-रात में ही ...।
गोल-गोल अमरूद एक ,
जो टहनी में लटका था ।
गदराया था ,
पक जाने तक
मन उसमें अटका था ।
देखा सुबह लगा वो झटका ,
आँखों में काँटा सा खटका ,
था अमरूद खोखला लटका ।
"कौन कुतर कर इसे खागया ,
रात--रात में ही ..।"
रोज़ रात को स्वप्न सजाकर
जवाब देंहटाएंऔर नई योजना बनाकर
सुबह उन्हें पूरा कर लेंगे
सोच के हम सो जाते हैं
, पर
सुबह सामने नई समस्या
स्वप्न पुराने धरे रह गए
कौन कुतर कर उन्हें खा गया
रात-रात में???
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दीदी! बहुत अच्छी कविता.. मन प्रफुल्लित हो गया और यह तुकबन्दी निकल गई दिल से!!
आपकी इस बढिया तुकबन्दी को अपनी कविता में जोडने का मन हो रहा है लेकिन वह कुछ बडों के लिये ज्यादा उपयुक्त है लेकिन है बहुत ही दमदार..।
जवाब देंहटाएंरात में रूप सजा कर आयी प्रकृति। सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंवाह एक और उत्कृष्ट रचना :)
जवाब देंहटाएंबुआ...आपकी कविता तो शानदार है ही, ऊपर से सलिल चचा के मन से निकली ये पंक्तियाँ...इसको कहते हैं आम के आम, गुठलियों के दाम...दिल खुश हो गया...|
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