झर् झर् झर् झरता है झरना .
सर् सर् सर् बहता है झरना ,
पर्वत के अन्तर में पिघली ,
करुण-कथा कहता है झरना .
रात और दिन झरे निरन्तर .
पत्तों को हँसना सिखलाता ,
बंजर को भी करता उर्वर .
खुद ही अपनी राह बनाता ,
अपनी धुन रहता है झरना .
झर् झर् झर् झरता है झरना .
वर्षा ऋतु में इतराता है .
शरद फुहारें बिखराता है.
शीत सिकुड़ता थर् थर् थर् थर् ,
वेग जरा सा थम जाता है .
गर्मी में व्यय को सीमित कर ,
सूझ-बूझ गहता है झरना .
झर् झर् झर् झरता है झरना.
अन्तर की शीतलता है यह .
बाधाओ से ऊपर ,
आगे बढ़ने की आकुलता है यह .
कोई कितना रोके टोके ,
कब किसकी सुनता है झरना .
आपकी रचना बहुत सुन्दर है। हम चाहते हैं की आपकी इस पोस्ट को ओर भी लोग पढे । इसलिए आपकी पोस्ट को "पाँच लिंको का आनंद पर लिंक कर रहे है आप भी कल रविवार 15 जनवरी 2017 को ब्लाग पर जरूर पधारे ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विरम जी .
जवाब देंहटाएंझरना..एक सुंदर कलाकृति उस कलाकार की..गिरने में भी सुंदरता दर्शाता..कभी न रुकने का संदेश देता..खूबसूरत कविता गिरिजा जी !
जवाब देंहटाएंगिरिवर की कोमलता है यह
जवाब देंहटाएंअन्तर की शीतलता है यह .
बाधाओ से ऊपर ,
आगे बढ़ने की आकुलता है यह .
वाह!!
सुन्दर रचना 👌
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