पूसी पहुँची पटना जबसे ,
अपने पूरे घर में तबसे ,
है चुहियों का राज,
करूँ अब क्या ?
पहले-पहल एक ही
आई .
एक और फिर पडी दिखाई .
अब पूरा का पूरा कुनबा ,
दिन भर खेले छुआ-छुलाई .
और कबड्डी रात ,
करूँ अब क्या ?
ऊपर -नीचे सरपट
दौडें ,
जैसे किसी रेस के घोडे ।
आलू-प्याज पुलाव
पकौडे ,
फल भी नहीं अछूते छोडे ।
चिन्दी, कागज, डिब्बी-डिब्बे.
सभी कुतर कर थोडे-थोडे ,
कर डाले बेकार ,
करूँ अब क्या ?
पिंजरे को पहचान गई है .
टिकियों को ये जान गईं हैं .
देख सूँघ हिल-मिल जाती हैं
बच कर निकल-निकल जाती हैं .
कितनी खटपट करो डरालो ,
नाली बिल सब बन्द करालो .
कितना छका-थका लेती हैं .
कैसे राह बना लेती हैं .
करती हैं बेहाल ,
करूँ मैं क्या ...
करती रहती किट्..किट्..कुट्..कुट् ...
चुभती रहती चीं..चीं..चुक्..चुक्..
मचे रात-दिन धमा-चौकडी
अपनी सारी गई हेकडी
जमीं ठाठ से घर में ऐसे ,
घर इनके पुरखों का जैसे
सोपाते हैं जैसे-तैसे ..,
कैसे-कैसे हाल
...
करूँ अब क्या ?
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-4-22) को "ऐसे थे निराला के राम और राम की शक्तिपूजा" (चर्चा अंक 4398) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
धन्यवाद कामिनी जी.
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंइतना गज़ब का टॉपिक गिरिजा जी, इससे पहले नहीं पढ़ा...जबरदस्त...रचना...
जवाब देंहटाएंयदि आपकी अनुमति हो तो क्या इसे मैं अपनी वेबसाइट पर दे सकती हूं ?
धन्यवाद अलकनन्दा जी. आप ज़रूर दें .
हटाएंवाह! मज़ा आ गया पढ़कर, बाल कविता सा सृजन बहुत प्यारी कविता गिरिजा जी, अछूता सा विषय।
जवाब देंहटाएंअभिनव सृजन।
धन्यवाद कुसुम जी
हटाएंवाह मज़ेदार🙂..लगभग हम सबने घर में चुहियों के इस आतंक को झेला होगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मनीष जी
हटाएंवाह! बहुत बढ़िया मजेदार 👌
जवाब देंहटाएं😄😄👌👌👌👌अहा!चूहा मंडली के आतंक से त्रस्त बहुत ही मज़ेदार रचना आदरणीया।बहुत ही रोचक शब्दों में मर्मांतक व्यथा बयां हुई है ।पर गनीमत है एक उदारमना कवियत्री के घर इन उत्पाती चुहियों का बसेरा हुआ है।किसी निष्ठुर के यहाँ ये धमाचौकडी मचाई होती तो इनकी हस्ती कब की मिट गयी होती।बहुत ही प्यारी रचना है 😄😄🙏
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मुझे भी आनन्द आगया रेणु जी. आभार.
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