आती जैसे धूप सुनहरी ,
आती रोज गिलहरी ।
करने शैतानी, मनमानी ,
बिल्कुल जानी मानी ।
आँखें चंचल कोमल
ऊपर खिंची लकीरें गहरी,
आती रोज गिलहरी .
उतर नीम की डाली से ,
चढकर खिडकी की जाली से ,
सीधी कमरे में आती .
और रसोईघर से ,
रोटी चुनचुन कर ले जाती .
कुछ खाती कुछ बिखराती .
पकडूँ तो हाथ न आती
बस बैठी दूर रिझाती .
लगती है बड़ी गुनहरी
आती है रोज गिलहरी .
कपडे चादर पडे सुखाने ,
नटखट कुतरे बिना न माने.
धूप दिखाने जो भी रक्खूँ,
आजाती है खाने .
कुतरा अनार वो टपका,
अमरूद खोखला लटका .
जब भी कुछ खाने आयें,
मिट्ठू जी खायें झटका .
वे अपना मन बहलायें,
केवल खाकर मिर्च हरी .
आती है रोज गिलहरी ..
अगर न वह आये तो क्या हो !
अदा न दिखलाये तो क्या हो !
सूनी होगी डाली-डाली ,
जाली खाली खाली .
आँगन होगा सूना सूना .
समय लगेगा दूना-दूना.
ज्यों गुब्बारे वाले की फेरी
आती रोज गिलहरी ।
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गिलहरी एक मनभावन प्राणी है जिसकी चंचल किन्तु निर्दोष गतिविधियां मन को हर्षा देती हैं। आपने हृदय विजित कर लेने वाली ऐसी सुंदर कविता रची है जिसे पढ़ते समय लगता है जैसे अपने समक्ष एक जीती-जागती गिलहरी को किलोलें करते देख रहे हों।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार जितेन्द्र जी . आप ब्लाग पर आए कविता पढ़ी और अपनी बहुमूल्य राय दी ।
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