वैसे तो भैया के कई दोस्त थे लेकिन उनका वह दोस्त अजीब ही था । हम सबकी समझ से बाहर । स्याह काला रंग ,बड़े बाल , लम्बा डीलडौल ,झबरीली पूँछ ,पल पल झपकती, कुछ चाहती हुई सी आँखें ,कीचड़ से सने पाँव ,लेकिन भैया को वह बहुत प्यारा था । सबसे प्यारा दोस्त । भैया उसे बीसा कहते थे क्योंकि उसके चारों पैरों में पाँच पाँच नाखून थे । जो आमतौर पर नहीं होते । भैया इसे उसकी खासियत बताते थे लेकिन वह मुझे ढोंगी लगता था ।
“हाँ हाँ ढोंगी नहीं तो क्या , वैसे तो ऐसी अकड़ दिखाता है जैसे शेर
हो, पर भैया को देख कैसे पूँछ हिलाने लगता है । बेचारा बन जाता है । ढौंगी ,पेटू
..।”
“अरे जा ..!”--भैया मेरी बात सुनकर चिढ़ जाते ।
“ऐसे वैसे की रोटियों को सूँघता तक नहीं मेरा बीसा । वह पेटू नहीं ,प्रेम
का भूखा है ।”
“प्रेम का भूखा है –! “ ---मैं भैया की नकल उतारती –--"क्या
रोटियाँ नहीं खाता हमारे घर ?”
“ बड़ी आई ‘ घर ' वाली ! क्या घर तेरा अकेली का है जो रोटियों की धौंस जमाती है ?”भैया
की जान बसती थी उसमें ।
उनकी दोस्ती कब कैसे हुई ,यह तो नहीं मालूम लेकिन कुछ दिनों से रोटियों
का डिब्बा अक्सर खाली मिलता था । एक दिन मैंने देखा कि वे बगल में कागज का एक
बण्डल दबाए जा रहे थे । उसमें रात की बची चार रोटियाँ थीं । कजरी ( गाय) के अलावा
दरवाजे पर आए किसी पालतू या चिड़ियों के लिये माँ हमेशा कुछ रोटियाँ ज्यादा बनाकर
रखती थीं ।
“भैया ये रोटियाँ किसके लिये ?”—मैंने पूछा तो
वे कुछ सकपका गए ।
“वो .. वो ..चिड़ियों के लिये...नहीं ..नहीं मछलियों के लिये । नदी
में नहाने जा रहा हूँ न ?”
“मछलियों के लिये ? इतनी रोटियाँ ? मुझे तो नहीं
लगता ।”
“तो फिर तुझे जो लगता है ,वही सही । तू कोई वकील या जज है मेरी ?”--
भैया तपाक् से बोले और मुझे लगभग धकेलते हुए चले गए पर मैं भी छोटी सही , बहिन तो
उन्ही की थी । पता लगा ही लिया कि जनाब इतनी रोटियाँ एक कुत्ते के लिये लेजाते हैं
। बात यह है कि माँ के अलावा घर में कुत्तों को कोई पसन्द नहीं करता था । पिताजी
और मैं तो खासतौर पर । कुत्ते हमें गन्दगी और बीमारी का घर लगते थे । पिताजी बताते
थे कि साँप का काटा एक बार बच जाएगा पर कुत्ते का काटा कभी नहीं । हाँ छोटे गुलफुले
से पिल्ले ज़रूर बहुत अच्छे लगते थे । पर कुछ ही समय के लिये । फिर एक सच और भी
दिमाग में बैठा था कि उन्हें कितना ही लाड़ प्यार से पालो पोसो , उनका अन्त दुखद
और कष्टदायक होता है तभी तो किसी के लिये सबसे बुरे अन्त के लिये कुत्ते की मौत
मरने का शाप देते मैं अक्सर सुनती थी ।
यह शहरों के उन घरों की बात नहीं जहाँ मँहगे विदेशी कुत्ते पालना पशु-प्रेम
के साथ फैशन और स्टेटस सिम्बल है । उनका
रहना खाना देखभाल और सुविधाएं घर के सदस्य की तरह होती है । घुमाने और सफाई के
लिये नौकर होते हैं । लेकिन गन्दे डबरों में लोट लगाकर आते बीसा के लिये न तो हमारे
घर में जगह थी न ही दिल में । पिताजी ने
सुना तो भैया पर खूब बरसे । पर भैया सिर झुकाए चुपचाप सुनते रहे । किसी के गुस्सा को
सहने में उन्हें महारत हासिल है । बोलना तो दूर सिर तक नहीं उठाते । इसलिये कोई उनसे
देर तक नाराज नहीं रहता था । पिताजी भी नहीं । इसलिये बात को आगे बढ़ना था सो बढ़ी
और एक दिन बीसा भैया के पीछ चला आया । ज़ाहिर है कि उनके संकेत पर ही आया होगा पर
भैया उसे झिड़कते हुए ऐसा दिखा रहे थे जैसे इसमें उनका कोई हाथ नहीं ,ज़रूर पिताजी
को दिखाने के लिये । लेकिन बीसा था कि भैया की हर झिड़की पर थोड़ा ठिठकता ,पलकें
झँपकाता ,फिर पूँछ दबाए आगे उनके पीछे चल देता । इस तरह वह चबूतरे पर आगया और डरने
का अभिनय करता बैठ गया । भैया ने पिताजी को देखते हुए उसे ठोकर मारते हुए कहा—-"चल
उठ यहाँ से ..” जब नहीं उठा तो एक पतली सी संटी उठा लाए ।
भैया के इस बर्ताव पर वह कूँ कूँ करता पसर गया मानो कह रहा हो ---'अब
क्या हुआ दोस्त ,जो ...पर जो भी हो मारो ,..दुत्कारो पर जाऊँगा नहीं ..” भैया का तरीका काम आया । पिताजी भैया
पर चिल्लाए –--"अब क्यों भगा रहा है दिलीप ? हौसला तो तूने ही बढ़ाया है उसका .”
यानी पिताजी ने हरी झण्डी दे दी । भैया को और क्या चाहिये था फौरन
उसे पुचकारने लगे । पीठ को सहलाने लगे । अब धुले पुछे फर्श पर वह कीचड़ सने पैरों
से आकर इस तरह साधिकार बैठ जाता जैसे यह घर हमसे ज्यादा उसी का हो । बैठा बैठा जीभ
निकाले , लार टपकाता हाँफता रहता । मुझे मितली सी आती । सोचती कि पूरे कलेवर में मुझे
ऐसी कोई बात नज़र नहीं आती जिस पर प्यार आए । पता नहीं भैया को क्या दिखता है
इसमें ।
गर्मियों में जब हम गैलरी में दरी बिछाए ताश या कैरम खेलते , वह कहीँ
से आकर भैया से सटकर बैठ जाता । भैया मेरी तरफ देखते मुस्कराते हुए उसकी गर्दन में
ताथ डालकर दुलारते ।
‘ऐसी आत्मीयता !’–- मैं कुढ़ती । इस दुष्ट के आने से
पहले भैया मुझे कितना प्यार करते थे ! जी चाहता कि कसकर दो डण्डे जमादूँ । पर
मेरे चाहने से क्या होता । उसके लिये भैया हमेशा सजग रहते थे । फिर अब तो माँ के
साथ पिताजी का भी सम्बल मिल गया था । उन्हें देख वह पंजे बढ़ाता ,पूँछ हिलाकर, पीठ
के बल लेटकर अपनी कृतज्ञता दिखाता । माँ के लिये भी वह कजरी की तरह होगया था । माँ
कजरी की भाषा समझती थीं ,बीसा की भी समझने लगीं । एक सुबह उन्होंने बड़ी आत्मीयता
से रात की बात बताई कि बीसा रात के ग्यारह बजे जाने कहाँ से आया और उन्हें देखते
ही कूँ कूँ करते बैठ गया । माँ ने उसे जाने के लिये कहा तो वहीं पसर गया । फिर
उन्होंने मोटी तीन चार रोटियाँ बनाईं जिन्हें खाकर वह चुपचाप आज्ञाकारी बच्चे की
तरह चला गया ।
“ठीक है माँ , मुझसे ज्यादा अब तुम्हारे लिये यह कुत्ता होगया । मैं रात
में खाने माँगती तो कह देती—सुबह दूँगी बीनू । रात का खाना हजम नहीं होता ।”
माँ मेरी शिकायत पर मुस्कराकर रह गईँ । अब कहीँ न कहीं मैं भी चाहने लगी कि मेरे लिये
भी वह पंजा बढ़ाए । पर मुझे देख ऐसी उपेक्षा दिखाता कि मैं कटकर रह जाती
“देखो भैया तुम्हार बीसा मेरे हाथ से रोटी नहीं खाता ।“
“तू उसे प्यार से थोड़ी खिलाती है ?” यह कहकर वे उसके
सामने रोटी बढ़ाते तो वह लपककर मुँह में भर लेता ।
“देखा ,रहीम ने ऐसे ही थोड़ी लिखा है कि –‘अमिय पिलावत मान
बिन रहिमन मोहि न सुहाय ..”
एक बार किसी ने उसके पाँव में कुल्हाड़ी मारदी । हुआ वहीं जिसका डर
था । घाव गहरा था । हड्डी दिखने लगी । वे बरसात के दिन थे ।चारों ओर मक्खी मच्छर ही
नहीं तमाम दूसरे कीट-पतंगे भी होते हैं उस पर कुत्ते का घाव । आसानी से ठीक नहीं
होने वाला था । अब वह छटपटाता , लँगड़ाता घर में आजाता तो मैं कहती –“भैया
यह आफत पाली तुमने है पर भुगतेंगे हम सब । यहीँ सड़ेगा ,मरेगा ..”
भैया ने ठहरी हुई नज़रों से मुझे देखा और सिर्फ इतना कहा –--"अगर
तुम्हें ऐसा कुछ होजाए तो ?”
फिर वे कहीं से दवा ले आए और अपने एक दोस्त की मदद से बीसा के घाव
में लगाते । वह पीड़ा से तड़फता ,छुटकर भागने की कोशिश करता पर भैया की डाँट खाकर
चुप होजाता । एक दिन भैया ने खुश होकर बताया कि बीसा ठीक होगया है । यह सुकर मुझे भी
अच्छा लगा । मैं भी कोशिश करने लगी कि भैया की खुशी के लिये बीसा को अपना बनालूँ पर
मुझे इसका मौका ज्यादा नहीं मिल पाया ।
लगभग तीन महीने बाद की बात है । मैंने देखा भैया काफी गुमसुम रहने
लगे हैं । मुझसे बात करने की बजाय कभी अकेले छत पर खड़े रहते तो कभी पेट दर्द के
नाम कमरे में लेटे रहते । मुझसे उनकी वह उदासी व बेरुखी नहीं देखी गई । पास जाकर
पूछा ---"भैया कोई परेशानी है तो मुझे बताओ ।“
भैया ने मुझे खाली सी नज़रों से देखा ,होंठ हिले पर कुछ कहा नहीं ।
“भैया बीसा कई दिनों से नहीं दिखा । क्यों नहीं आया ?”
“तुम्हें क्या लेना देना बीसा से ?”--–भैया अचानक पलटकर
तल्ख लहजे में बोले – “नहीं आ रहा है तो तुम्हें तो खुश होना चाहिये । हँसो ..बजाओ ताली ..!”
मैं स्तब्ध । यह रूप पहली बार देखा था अपने भैया का । वे मुझे बहुत
प्यार करते थे । पाँच-छह साल बड़े होकर भी मुझे अपनी हर बात एक दोस्त की तरह बताते
थे । अपनी हर बात पिताजी तक मेरे द्वारा ही कहलवाते थे । वहीं मेरे भैया इतने दुखी
, नाराज़ । मैंने चिन्तित होकर उनके दोस्त हेमन्त से उनके इस व्यवहार के बारे में पूछा
तो उसने बताया कि बीसा दुनिया से चला गया है ।
सुनकर मेरा दिमाग चकरा गया । हाथ पाँव शिथिल पड़ गए । “कब ?
कहाँ
? ..कैसे ?
हेमन्त बोला --“जब दो दिन से बीसा नहीं दिखा तो हम लोग
उसे ढूँढ़ने गए । गाँव में देखने के बाद हम खेतों की तरफ गए तो देखा कि दूर एक
पेड़ के सहारे बीसा सो रहा है । जब उसे जगाया तो पता चला कि वह सदा के लिये सोगया
है । हम लोगों ने दुखी होकर वहीं गड्ढा खोदकर उसे समाधि देदी ।“
यह सब सुनकर मेरा हृदय जैसे बाहर निकलने को हुआ । आँखें भर भराकर बह
चलीं । बीसा गया भी तो किस तरह ,दूर एकान्त में अकेला निरीह दुनिया को विदा कह गया
मेरी मान्यता को झुठलाकर , मेरी नफरत पर तमाचा मारकर ..
काश मैं उसे प्यार कर पाती लेकिन मेरे पास अब पछताने के अलावा कुछ
नहीं था ।
(सन्1989 में चकमक में प्रकाशित और बाद में 'मुझे धूप चाहिये' संग्रह में शामिल)
सुन्दर
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