शनिवार, 1 नवंबर 2025

सबक

 एक जगह जमीन बड़ी ऊबड़-खाबड़ थी । ऐसी कि वहाँ न अच्छी तरह खेती की जा सके न मकान बनाया जा सके । मिट्टी के टीले , बड़े हठीले जमे थे सालों से । हटने तैयार ही नहीं । तब वहाँ एक जेसीबी मशीन लाई । टीलों को देखकर गर्व से बोली –"–मैं जहाँ हाथ रखदूं पहाड़ गायब होजाए ,ये चिट्टे चिट्टे से टीले क्या हैं !”

तुम्हारा एक ही हाथ है कैसे हटाओगी ये चिट्टे से टीले ?”–--आदमी जो जमीन का मालिक था ,बोला ।

मशीन चिढ़कर बोली---"तुम्हारे दो हाथ हैं । जरा उस उस पत्थर को ही सरकाकर दिखाओ । मेरा एक हाथ ही काफी है । देखते नहीं कितना लम्बा और मजबूत है मेरा फौलादी हाथ ?”  

मुझसे भूल होगई ।–आदमी ने मशीन को गौर से देखा । सचमुच उसके मजबूत हाथ की पहुँच दूर तक थी । हाथ में एक बहुत बड़ा दाँतेदार सूप भी था जिससे मिट्टी खोदने का काम बखूबी होता होगा ।

खोदने का ही नहीं भरने का भी .”-–मशीन ने आदमी की जानकारी पूरी करते हुए कहा ।

बस तुम्हें  मिट्टी ढोनेवाला कोई पिट्ठू बुलाना होगा .”

पिट्ठू नहीं, डम्पर कहो ।---आदमी बोला--- मिट्टी ढोने का काम उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता ।

हाँ हाँ मेरा मतलब वही था ।– मशीन लापरवाही से बोली । डम्पर को वह मशीन कुछ शेखीखोर लगी ।

तुम कुछ बढ़ चढ़कर नहीं बोल रही हो ।

यह तो तुम्हें मालूम होजाएगा जब मिट्टी ढोओगे ।

ठीक है ठीक है ।”--डम्पर ने उसके बड़े हाथ और सूप के बड़े बड़े दाँते देखकर कहा ।

मशीन ने अपने दाँतेदार सूप को टीले में गहरा घुसाया और ढेर सारी मिट्टी खोद ली और सूप भरकर डम्पर की पीठ में सरका दी । दस-बारह सूप में डम्पर पूरी तरह भर गया । मिट्टी को कुछ दूर एक गड्ढे में उड़ेलकर डम्पर फिर आया । मशीन फिर डम्पर में मिट्टी भरने लगी ।

पहले कुछ ज्यादा थी मिट्टी । चढ़ने में मुश्किल हुई थी । एक दो सूप कम ही डालना । --डम्पर ने कहा ।

मशीन ने कोई जबाब नहीं दिया । बस मिट्टी खोदती और सूप भरकर डम्पर में डालती रही । डम्पर ने रोका -

बस ,बस काफी है ।

अरे ,बस इतने में ही घबरा गए ! दो चार सूप और भरने दो ।

नहीं , बिल्कुल नहीं । मैं फिर लौटकर आता हूँ न । तब तक मिट्टी खोदकर रखो .”-- डम्पर ने कहा पर मशीन नहीं मानी । इंजन स्टार्ट करते करते उसने दबा दबाकर चार सूप मिट्टी और भरदी फिर विजयीभाव से अकड़कर बोली --

चलो ,अब जाओ ।

मैने तुमसे मना किया था न ?”

तो क्या होगया ?  इतने कमजोर हो क्या ? तुम तो सचमुच पिट्ठू ही निकले ।

डम्पर को बहुत बुरा लगा । सोचा कि जेसीबी ने उसकी बात नहीं सुनी और अब उसे नीचा भी दिखा रही है । तो ठीक है । डम्पर ने इंजन बन्द कर दिया ।    

डम्पर को खड़ा देख जेसीबी चिल्लाई –"खड़े क्यों हो ,जाओ ।

नहीं जा सकता । पहले मिट्टी कम करो ।

अब भर गई तो भर गई , भरी मिट्टी कम नहीं हो सकती ।

मिट्टी तो कम करनी ही पड़ेगी । डम्पर भी अड़ गया । एक घंटा बीत गया । आदमी ने देखा काम ठप्प पड़ा है । वह कुछ कहता उससे पहले ही मशीन बोल पड़ी –--" इसकी जिम्मेदार मैं नहीं । मैने मिट्टी भरदी है । देखो ना ,यह पिट्ठू आगे बढ़ता ही नहीं ।

मैं क्या करूँ  इंजन ने साफ मना कर दिया है चलने से । देखो । --डम्पर ने घर्र घर्र इंजन चलाकर दिखाया । ढेर सारा धुँआ उड़ा पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ी ।

मेरे मना करने पर भी मिट्टी ठसाठस भरदी । अब मिट्टी कम हो तो आगे बढूँ ।

आदमी ने देखा डम्पर की बात सही है । मशीन से बोला --

काम पूरा नहीं होता तो इसकी जिम्मेदारी तुम पर भी आएगी । जब काम दोनों को मिलकर ही करना है तो यह झगड़ा क्यों ? तुम मिट्टी कम करो ताकि काम आगे बढ़े ।

मन मार कर मशीन को मिट्टी हटाने तैयार होना पड़ा । डम्पर ने पीठ को झुकाया ,मशीन मिट्टी हटाने लगी

अब ठीक है ?”

नहीं , और हटाओ..हटाओ ..और और …”
यह कहते कहते डम्पर ने पूरी मिट्टी नीचे सरका दी ।

यह क्या किया तुमने ?”

मैने क्या किया ? मिट्टी तो तुम्ही हटा रही हो ।

मशीन चुपचाप दोबारा मिट्टी भरने लगी । लेकिन समझ गई कि यह पिट्ठू उतना भी मामूली नहीं जितना उसने समझा था ।  

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

आए दिवाली दस बार

 “हे भगवान , यह दिवाली हर साल क्यों आजाती है ? भले ही होली साल में दो बार आजाए लेकिन दिवाली तो एक बार भी नही आए ।”—--बुँदकी एक कोने में कान बन्द करके बैठी बड़बड़ा रही थी ।

चारों ओर दीपावली की धूमधाम थी. बाहर धड़ाधड़ पटाखे फोड़े जा रहे थे । उस समय वह ज़रूर सोच रही होगी कि क्या होना चाहिये और क्या नही होना चाहिये  , अगर यह फैसला उसके हाथ में हो तो वह सबसे पहले पटाखे बनाने वाली फैक्ट्रियाँ बन्द करवा दे । खुशी जाहिर करने का यह एकदम बर्बर तरीका है । अरे, खुशी मनानी है तो फुलझड़ियाँ चलाओ , अनार जलाओ । गाओ ,नाचो । यह क्या चटाक् पटाक् ..धूम-धड़ाम...। मानो गुस्साए बादल गरज रहे हों , धरती फट गई हो या कोई मकान गिरा हो । मानो त्यौहार नही मना रहे बल्कि किसी दुश्मन को मार गिराने के लिये किसी मोर्चें पर खडे हों । क्या ये पटाखे बदला ,युद्ध और खून-खराबे की याद नही दिलाते ?

दीपावली का आना बुँदकी के लिये आफत की बारिश होना है । उसे जितना डर लड़ी पटाखों से लगता है उतना तो बिना होमवर्क पूरा किये ही स्कूल जाने से भी नही लगता । दशहरा-उत्सव बीतते बीतते दूसरे बच्चे तो खील-खिलौनों ,नए कपड़ों के इन्तजार में खुशी-खुशी घर की सफाई और साज-सज्जा में बड़ों का हाथ बँटाते हैं ,उनके सम्हाल कर रखे पिस्तौल तमंचे निकल आते है । और जहाँ मौका मिला फटाक् से चला देते है लेकिन बुँदकी की तो शामत ही आजाती है । उसके सामने एक ही सवाल होता है ,एक ही काम होता है कि पटाखों की कनफोड़ आवाज से वह खुद को कैसे बचाए । वह बस सुन भर ले कि पटाखा चलने वाला है वह झट् से कान बन्द कर लेती है । फिर चाहे खाना खा रही हो और हाथ सब्जी या खीर से सने हों । यहाँ तक कि उसके हाथों में दूध का बर्तन होता और गली में पटाखा चलाने की तैयारी हो रही हो तो बर्तन को कही भी पटककर कान बन्द कर लेगी और आँख बन्द कर पटाखा फूटने का इन्तजार करेगी या फिर जितना दौड़ सकती है दौड़ने लगेगी ताकि वह कनफोड़ आवाज कानों तक पहुँचते पहुँचते हल्की होजाए ।

एक दिन तो यह हुआ कि वह चबूतरा पर खडी थी । उसकी गोद में नन्हा गत्तू था । तभी उसने देखा कि मंगल एक पटाखे को चिनगारी देने जा रहा है । बस उसने गत्तू को चबूतरा पर ही छोड दिया ताकि दोनों हाथों को कान बन्द करने के लिये आजाद कर सके । जब तक पटाखा फूटकर धमाका हो नही गया उसने गत्तू की भी परवाह नही की । वह नन्हा बच्चा लगातार रोता रहा । हाँ बाद में गत्तू को छाती से चिपकाए खुद भी रोती रही । दीपावली के पाँच दिनों में वह या तो घर से निकलती नहीं है या कानों में उँगली डाले रहती है ।

"इतनी बड़ी होकर भी डरती है । भला ऐसा भी क्या डर ?"--सब हँसते हैं पर उसे परवाह नही । धमाकों से वह इतनी डरती है कि उसे न किसी बच्चे के जन्म की खुशी होती है न किसी बरात के सजने की । दोनों अवसरों पर भी लोग बम-पटाखे फोड़ने का बहाना ढूँढ़ लेते हैं ।

नीटू चिंटू और खलबल हँसते हैं-- "देखो जरा एक डरपोक लड़की को । ताड़ सी लम्बी हो रही है और उन पटाखों से डरती है जिन्हें बित्ते भर के बच्चे चलाते हैं । ऐसे कौन डरता है ?”

“ चिड़ियाँ डरती हैं । देखते नही कैसे उड़ जातीं हैं । क्या उनका डरना कोई मायने नही रखता ?" ---बुँदकी की बात पर बच्चे और जोर से हँसते हैं ।

"हो..हो...हो...ठीक है फिर हम तुम्हें चिड़िया दीदी कहेंगे । और चुग्गा डाल दिया करेंगे । बुँदकी दीदी डरपोक चिड़िया....।"

कभी-कभी वे बुंदकी को चिढ़ाने झूठी खबर दे देते हैं---

"अरे दीदी ,बाहर नीटू सुतली बम चला रहा है सावधान..।" बस बुँदकी सारे काम छोड़ कर कान बन्द कर लेती है । 

किट्टू तो बुँदकी को सुनाने के लिये ही जोर से कहता है ---“पापा इस बार ज्यादा तेज धमाके वाले पटाखे लाना । चिटपिट में मजा नही आता ।

बुँदकी बहुत छोटी थी तभी से पटाखों से डरती रही है । इसी डर में जीते-जीते अब वह चौदह साल की होगई है । दिवाली के आने से अब भी उतनी ही नाराज रहती है । न उसे मिठाइयाँ लुभाती हैं न ही नए कपड़े । उस पर भी किसी को उसकी परवाह नहीं , यह मलाल अलग । पापा खूब प्रलोभन दे चुके हैं कि अगर बुँदकी एक भी पटाखा चला सकी तो जो माँगेगी वह दिलाएंगे । खूब सारे बढ़िया कपड़े और खिलौने भी मिलेंगे पर ये प्रलोभन बुँदकी को ज़रा भी नहीं डिगा पाए ।

इस बार भी सब कुछ वैसा ही था । रंग--रोगन से घर--आँगन चमचमा रहे थे । बाजार में खूब चहल-पहल थी । घरों में खील बतासे रुई शक्कर के खिलौने और सबके लिये नए कपड़े खरीदे गए थे । पूजा के लिये चाँदी का सिक्का पान-सुपारी फूल मिठाइयाँ ,सब कुछ तैयार था । घर के सारे बच्चे खुशी से उछल कूद रहे थे । बड़े--बूढ़े बच्चे सब सज धज कर उल्लास के साथ दीपावली की तैयारी कर रहे थे । उस समय भी जब सब किसी न किसी काम में लगे थे , बुँदकी अकेली कमरे में बैठी थी । उसके कान बाहर लगे थे । हर धमाके पर उसके सीने में धड़धड़ाहट सी होती थी । सदा की तरह ही उसके लिये न तो नए कपडों में कोई आकर्षण था न ही मिठाइयों में कोई स्वाद । 

इस बार कुछ नया था तो वह यह था कि इस बार बच्चों के किशोर भैया आगए थे । किशोर बुँदकी की बुआ का लड़का है जो हैदराबाद में इंजीनियर है । वह हैदराबाद से ढेर सारे पटाखे व मिठाइयाँ लाया था ।

"भैया पटाखों को तो तुम किसी तालाब में फेंक आओ ,नही तो बुँदकी दीदी तुम्हें भी कभी माफ नही करेंगी ।-"-छुटकू ने किशोर को पूरी बात बतादी ।

"चलो इसी बात पर पटाखे चलाना कैंसल ..केवल रोशनी वाली आतिशबाजी चलेगी । ठीक है न बुन्दू ।"--किशोर ने ।

"हाँ और नहीं तो क्या । पटाखों से प्रदूषण भी तो होता है । केवल रोशनी चलाओ वह ठीक है ।" किशोर बुँदकी की बात पर मन ही मन मुस्कराया –-'प्रदूषण तो रोशनी वाले पटाखों से भी होता है बुन्दू । पर यहाँ बात प्रदूषण या पटाखों की नहीं बात मन में बैठे डर की है, से दूर करना होगा ।' बोला –-"बिल्कुल सही कहा । मैं तो भई बुँदकी के साथ हूँ ।"  

शाम को खिड़की में कान बन्द किये बैठी बुँदकी देख रही थी कि घर के सभी लोग सिर्फ अनार ,चकरी और फुलझड़ियाँ चला रहे हैं । पापा चाचा माँ बुआ ..सभी उसे बुला रहे थे । बुँदकी  को यकीन हुआ और वह बेफिक्र होकर और फुलझड़ी जलाने लगी । फिर अनार चलाया । रेलगाड़ी चलाई । रंग-बिरंगे झाड़ चलाए । वह बहुत खुश थी ।

तभी पीछे से छुटकू ने चिटपिटी चलादी । बुँदकी ने जैसे कुछ सुना ही नही ।

कुछ ही देर बाद नीटू ने लडियों के पूरे पत्ते में चिनगारी लगादी । तड़..तड़..तड़..तड़..एक एक कर सारी लड़ियाँ फूटने लगीं । बुँदकी चौंक पड़ी ।

"तुमने तो कहा था कि पटाखे नहीं चलाएंगे !" 

" अरे यह तो गलती से हुआ दीदी , लेकिन यह पटाखे थोड़ी है ।" छुटकू ने कहा --"पटाखा तो देखो इसे कहते हैं ,कहते हुए उसने दीवार पर एक पटाखा दे मारा । एक आवाज के साथ धुँआ उठा । बुँदकी ने कुछ नाराज होकर कहा---"तुम लोग मेरे साथ धोखा कर रहे हो ।"

"अरे पता नहीं कैसे हाथ से छूटकर दीवार से जा लगा बदमाश ।" छुटकू ने बुँदकी को सफाई दी इतने में खलबल ने कहते हुए खलबल ने एक और पटाखा फोड़ दिया । बुँदकी पैर पटककर जाने लगी तो किशोर ने रोका ---“क्या हुआ ? बुँदकी सच बताना क्या तुम्हें डर लगा ?” किशोर ने पूछा ।  बुँदकी कुछ कहते-कहते रुक गई ।

“हम जानते हैं कि कुछ नही हुआ । होगा भी नही । डर तो तभी तक है जब तक हम उससे भागते हैं । अगर डटकर मुकाबला करो वह खुद ही भाग जाएगा । यही सोचकर तुम खुद एक पटाखा फोड़ो दीवार ,पर फिर देखो कि डर खुद ही कैसे भाग जाता है..। तुम तो एक बहादुर लड़की हो । नही ?"

बुँदकी ने कुछ डरते हुए आँखें बन्द कर एक पटाखा धीरे से दीवार पर मारा ।

"अरे दीदी दीवार को लगेगी नही । जरा जोर से मारिये न । लगता है आपके हाथों में ताकत ही नही है ।" खलबल ने उकसाया तो बुँदकी ने पूरे जोर से पटाखा फेंका । एक तेज धमाके के साथ पटाखा फूट गया । बुँदकी को लगा कि यह काम उतना बुरा और डरावना नही है ।

 उसने दूसरा चलाया फिर तीसरा, चौथा ...। फिर तो दीपावली के बाकी दिन उसने खूब सारे ,सुतली बस जैसे पटाखे भी चलाए बिना डरे ।

अब बुँदकी हुलसकर सबसे कहती है --"दिवाली साल में एक बार क्यों ,दस बार आए..न.।" 

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

भैया का दोस्त

वैसे तो भैया के कई दोस्त थे लेकिन उनका वह दोस्त अजीब ही था । हम सबकी समझ से बाहर । स्याह काला रंग ,बड़े बाल , लम्बा डीलडौल ,झबरीली पूँछ ,पल पल झपकती,  कुछ चाहती हुई सी आँखें ,कीचड़ से सने पाँव ,लेकिन भैया को वह बहुत प्यारा था । सबसे प्यारा दोस्त । भैया उसे बीसा कहते थे क्योंकि उसके चारों पैरों में पाँच पाँच नाखून थे । जो आमतौर पर नहीं होते । भैया इसे उसकी खासियत बताते थे लेकिन वह मुझे ढोंगी लगता था ।

हाँ हाँ ढोंगी नहीं तो क्या , वैसे तो ऐसी अकड़ दिखाता है जैसे शेर हो, पर भैया को देख कैसे पूँछ हिलाने लगता है । बेचारा बन जाता है । ढौंगी ,पेटू ..।

अरे जा ..!”--भैया मेरी बात सुनकर चिढ़ जाते ।

ऐसे वैसे की रोटियों को सूँघता तक नहीं मेरा बीसा । वह पेटू नहीं ,प्रेम का भूखा है ।

प्रेम का भूखा है –! “ ---मैं भैया की नकल उतारती –--"क्या रोटियाँ नहीं खाता हमारे घर ?”

बड़ी आई घर ' वाली ! क्या घर तेरा अकेली का है जो रोटियों की धौंस जमाती है ?”भैया की जान बसती थी उसमें ।

उनकी दोस्ती कब कैसे हुई ,यह तो नहीं मालूम लेकिन कुछ दिनों से रोटियों का डिब्बा अक्सर खाली मिलता था । एक दिन मैंने देखा कि वे बगल में कागज का एक बण्डल दबाए जा रहे थे । उसमें रात की बची चार रोटियाँ थीं । कजरी ( गाय) के अलावा दरवाजे पर आए किसी पालतू या चिड़ियों के लिये माँ हमेशा कुछ रोटियाँ ज्यादा बनाकर रखती थीं ।

भैया ये रोटियाँ किसके लिये ?”—मैंने पूछा तो वे कुछ सकपका गए ।

वो .. वो ..चिड़ियों के लिये...नहीं ..नहीं मछलियों के लिये । नदी में नहाने जा रहा हूँ न ?”

मछलियों के लिये ? इतनी रोटियाँ ? मुझे तो नहीं लगता ।

तो फिर तुझे जो लगता है ,वही सही । तू कोई वकील या जज है मेरी ?”-- भैया तपाक् से बोले और मुझे लगभग धकेलते हुए चले गए पर मैं भी छोटी सही , बहिन तो उन्ही की थी । पता लगा ही लिया कि जनाब इतनी रोटियाँ एक कुत्ते के लिये लेजाते हैं । बात यह है कि माँ के अलावा घर में कुत्तों को कोई पसन्द नहीं करता था । पिताजी और मैं तो खासतौर पर । कुत्ते हमें गन्दगी और बीमारी का घर लगते थे । पिताजी बताते थे कि साँप का काटा एक बार बच जाएगा पर कुत्ते का काटा कभी नहीं । हाँ छोटे गुलफुले से पिल्ले ज़रूर बहुत अच्छे लगते थे । पर कुछ ही समय के लिये । फिर एक सच और भी दिमाग में बैठा था कि उन्हें कितना ही लाड़ प्यार से पालो पोसो , उनका अन्त दुखद और कष्टदायक होता है तभी तो किसी के लिये सबसे बुरे अन्त के लिये कुत्ते की मौत मरने का शाप देते मैं अक्सर सुनती थी ।

यह शहरों के उन घरों की बात नहीं जहाँ मँहगे विदेशी कुत्ते पालना पशु-प्रेम के साथ फैशन और स्टेटस सिम्बल  है । उनका रहना खाना देखभाल और सुविधाएं घर के सदस्य की तरह होती है । घुमाने और सफाई के लिये नौकर होते हैं । लेकिन गन्दे डबरों में लोट लगाकर आते बीसा के लिये न तो हमारे घर में जगह थी न ही दिल में । पिताजी  ने सुना तो भैया पर खूब बरसे । पर भैया सिर झुकाए चुपचाप सुनते रहे । किसी के गुस्सा को सहने में उन्हें महारत हासिल है । बोलना तो दूर सिर तक नहीं उठाते । इसलिये कोई उनसे देर तक नाराज  नहीं रहता था । पिताजी  भी नहीं । इसलिये बात को आगे बढ़ना था सो बढ़ी और एक दिन बीसा भैया के पीछ चला आया । ज़ाहिर है कि उनके संकेत पर ही आया होगा पर भैया उसे झिड़कते हुए ऐसा दिखा रहे थे जैसे इसमें उनका कोई हाथ नहीं ,ज़रूर पिताजी को दिखाने के लिये । लेकिन बीसा था कि भैया की हर झिड़की पर थोड़ा ठिठकता ,पलकें झँपकाता ,फिर पूँछ दबाए आगे उनके पीछे चल देता । इस तरह वह चबूतरे पर आगया और डरने का अभिनय करता बैठ गया । भैया ने पिताजी को देखते हुए उसे ठोकर मारते हुए कहा—-"चल उठ यहाँ से ..जब नहीं उठा तो एक पतली सी संटी उठा लाए ।

भैया के इस बर्ताव पर वह कूँ कूँ करता पसर गया मानो कह रहा हो ---'अब क्या हुआ दोस्त ,जो ...पर जो भी हो मारो ,..दुत्कारो पर जाऊँगा नहीं ..  भैया का तरीका काम आया । पिताजी भैया पर चिल्लाए –--"अब क्यों भगा रहा है दिलीप ? हौसला तो तूने ही बढ़ाया है उसका .”

यानी पिताजी ने हरी झण्डी दे दी । भैया को और क्या चाहिये था फौरन उसे पुचकारने लगे । पीठ को सहलाने लगे । अब धुले पुछे फर्श पर वह कीचड़ सने पैरों से आकर इस तरह साधिकार बैठ जाता जैसे यह घर हमसे ज्यादा उसी का हो । बैठा बैठा जीभ निकाले , लार टपकाता हाँफता रहता । मुझे मितली सी आती । सोचती कि पूरे कलेवर में मुझे ऐसी कोई बात नज़र नहीं आती जिस पर प्यार आए । पता नहीं भैया को क्या दिखता है इसमें ।

गर्मियों में जब हम गैलरी में दरी बिछाए ताश या कैरम खेलते , वह कहीँ से आकर भैया से सटकर बैठ जाता । भैया मेरी तरफ देखते मुस्कराते हुए उसकी गर्दन में ताथ डालकर दुलारते ।

ऐसी आत्मीयता !’–- मैं कुढ़ती । इस दुष्ट के आने से पहले भैया मुझे कितना प्यार करते थे ! जी चाहता कि कसकर दो डण्डे जमादूँ । पर मेरे चाहने से क्या होता । उसके लिये भैया हमेशा सजग रहते थे । फिर अब तो माँ के साथ पिताजी का भी सम्बल मिल गया था । उन्हें देख वह पंजे बढ़ाता ,पूँछ हिलाकर, पीठ के बल लेटकर अपनी कृतज्ञता दिखाता । माँ के लिये भी वह कजरी की तरह होगया था । माँ कजरी की भाषा समझती थीं ,बीसा की भी समझने लगीं । एक सुबह उन्होंने बड़ी आत्मीयता से रात की बात बताई कि बीसा रात के ग्यारह बजे जाने कहाँ से आया और उन्हें देखते ही कूँ कूँ करते बैठ गया । माँ ने उसे जाने के लिये कहा तो वहीं पसर गया । फिर उन्होंने मोटी तीन चार रोटियाँ बनाईं जिन्हें खाकर वह चुपचाप आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया ।

ठीक है माँ , मुझसे ज्यादा अब तुम्हारे लिये यह कुत्ता होगया । मैं रात में खाने माँगती तो कह देती—सुबह दूँगी बीनू । रात का खाना हजम नहीं होता ।

माँ मेरी शिकायत पर मुस्कराकर रह गईँ ।  अब कहीँ न कहीं मैं भी चाहने लगी कि मेरे लिये भी वह पंजा बढ़ाए । पर मुझे देख ऐसी उपेक्षा दिखाता कि मैं कटकर रह जाती

देखो भैया तुम्हार बीसा मेरे हाथ से रोटी नहीं खाता ।

तू उसे प्यार से थोड़ी खिलाती है ?” यह कहकर वे उसके सामने रोटी बढ़ाते तो वह लपककर मुँह में भर लेता ।

देखा ,रहीम ने ऐसे ही थोड़ी लिखा है कि –अमिय पिलावत मान बिन रहिमन मोहि न सुहाय ..

एक बार किसी ने उसके पाँव में कुल्हाड़ी मारदी । हुआ वहीं जिसका डर था । घाव गहरा था । हड्डी दिखने लगी । वे बरसात के दिन थे ।चारों ओर मक्खी मच्छर ही नहीं तमाम दूसरे कीट-पतंगे भी होते हैं उस पर कुत्ते का घाव । आसानी से ठीक नहीं होने वाला था । अब वह छटपटाता , लँगड़ाता घर में आजाता तो मैं कहती –भैया यह आफत पाली तुमने है पर भुगतेंगे हम सब । यहीँ सड़ेगा ,मरेगा ..

भैया ने ठहरी हुई नज़रों से मुझे देखा और सिर्फ इतना कहा –--"अगर तुम्हें ऐसा कुछ होजाए तो ?”

फिर वे कहीं से दवा ले आए और अपने एक दोस्त की मदद से बीसा के घाव में लगाते । वह पीड़ा से तड़फता ,छुटकर भागने की कोशिश करता पर भैया की डाँट खाकर चुप होजाता । एक दिन भैया ने खुश होकर बताया कि बीसा ठीक होगया है । यह सुकर मुझे भी अच्छा लगा । मैं भी कोशिश करने लगी कि भैया की खुशी के लिये बीसा को अपना बनालूँ पर मुझे इसका मौका ज्यादा नहीं मिल पाया ।

लगभग तीन महीने बाद की बात है । मैंने देखा भैया काफी गुमसुम रहने लगे हैं । मुझसे बात करने की बजाय कभी अकेले छत पर खड़े रहते तो कभी पेट दर्द के नाम कमरे में लेटे रहते । मुझसे उनकी वह उदासी व बेरुखी नहीं देखी गई । पास जाकर पूछा ---"भैया कोई परेशानी है तो मुझे बताओ ।

भैया ने मुझे खाली सी नज़रों से देखा ,होंठ हिले पर कुछ कहा नहीं ।

भैया बीसा कई दिनों से नहीं दिखा । क्यों नहीं आया ?”

तुम्हें क्या लेना देना बीसा से ?”--–भैया अचानक पलटकर तल्ख लहजे में बोले – नहीं आ रहा है तो तुम्हें तो खुश होना चाहिये । हँसो ..बजाओ ताली ..!”

मैं स्तब्ध । यह रूप पहली बार देखा था अपने भैया का । वे मुझे बहुत प्यार करते थे । पाँच-छह साल बड़े होकर भी मुझे अपनी हर बात एक दोस्त की तरह बताते थे । अपनी हर बात पिताजी तक मेरे द्वारा ही कहलवाते थे । वहीं मेरे भैया इतने दुखी , नाराज़ । मैंने चिन्तित होकर उनके दोस्त हेमन्त से उनके इस व्यवहार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि बीसा दुनिया से चला गया है ।

सुनकर मेरा दिमाग चकरा गया । हाथ पाँव शिथिल पड़ गए । कब ? कहाँ ? ..कैसे ?

हेमन्त बोला --जब दो दिन से बीसा नहीं दिखा तो हम लोग उसे ढूँढ़ने गए । गाँव में देखने के बाद हम खेतों की तरफ गए तो देखा कि दूर एक पेड़ के सहारे बीसा सो रहा है । जब उसे जगाया तो पता चला कि वह सदा के लिये सोगया है । हम लोगों ने दुखी होकर वहीं गड्ढा खोदकर उसे समाधि देदी ।

यह सब सुनकर मेरा हृदय जैसे बाहर निकलने को हुआ । आँखें भर भराकर बह चलीं । बीसा गया भी तो किस तरह ,दूर एकान्त में अकेला निरीह दुनिया को विदा कह गया मेरी मान्यता को झुठलाकर , मेरी नफरत पर तमाचा मारकर ..

काश मैं उसे प्यार कर पाती लेकिन मेरे पास अब पछताने के अलावा कुछ नहीं था ।   

(सन्1989 में चकमक में प्रकाशित और बाद में 'मुझे धूप चाहिये' संग्रह में शामिल)

बुधवार, 9 जुलाई 2025

पतंग-परी और डुग्गू

 एक थी पतंग । हरे पीले लाल नीले और जामुनी रंग वाली पचरंगी पतंग थी ।  एक लम्बे मजबूत धागे के का हाथ थामे आसमान में लहरा रही थी । हवा के साथ लय मिलाते फर् फर् ..सन् सन् गाते हुए कुछ इतरा भी रही थी । सारी दुनिया उसे छोटी लग रही थी । वह जिस डोर का हाथ थामे थी वह डोर डुग्गू के हाथ में थी । डुग्गू आठ साल की प्यारी सी बच्ची थी । उसे अपनी पतंग बहुत प्यारी थी । वह कहती थी -- मेरी पतंग परी जैसी है ।

क्या परी को तुमने देखा है डुग्गू ?” –कोई पूछे तो डुग्गू कहती --

मेरी दादी को सब मालूम है। उन्होंने परी को देखा भी है और मैंने अपनी किताब में भी पढ़ा है कि परी बहुत सुन्दर होती है ,दुनिया के लोगों से ज्यादा । उसके पंख होते हैं । वह जब चाहे हवा के साथ उड़कर कहीं भी जा सकती है । मेरी पतंग भी उड़ती है और तुम देख ही रहे हो कि कितनी खूबसूरत है .”-–यह कहते हुए वह खिलखिला उठती । 

उस समय जब परी आसमान में हवा के साथ लहरा रही थी , चिड़ियों से बातें करती हुई कुछ इतरा भी रही थी डुग्गू ने उसे पुकारा –--"परी अब आ जाओ । काफी देर सैर करली । थक जाओगी । फिर कल तो तुम्हारा मैच है ।

यह सुनकर परी लहराते हुए और ऊपर उड़ी और चिल्लाई—"हाँ मैं उसी की तैयारी कर रही हूँ ।  यहाँ मुझे बहुत अच्छा लग रहा है .”

अरे रुको ,मेरी बात सुनो । चिल्लाकर ऐसा कहते हुए डुग्गू ने ध्यान नहीं दिया कि उसने धागे को और ढीला छोड़ दिया है । हवा खिलखिलाई –-ये लो उड़ने की छूट तो तुम खुद ही दे रही हो और कहे जा रही हो कि लौट आओ

उई...!” –-डुग्गू ने अपनी भूल पर जीभ दाँतों में दबाई और डोर खींचते हुए चिल्लाई –--ज़रा ध्यान से परी ! क्या तुम्हें पता है कि जो पतंगें तुम्हारे आसपास मँडरा रही हैं । वे तुमसे लड़ने का इरादा लिये घूम रही हैं  

हाँ पता है पर मुझे कुछ नहीं होगा । -परी और तेजी से लहराई और इससे पहले कि दूसरी पतंगें उससे टकराने की सोचतीं परी उनसे जा भिड़ी । डुग्गू उसे खींचकर दूर ले जाना चाहती पर परी वहां से हटानी ही नहीं चाहती थी । पतंगें उसे उकसाए जा रही थीं । और हुआ वही जिसकी डुग्गू को आशंका थी । जी जान से लड़ते हुए परी के पंख कट गए तो वह और उड़ न सकी और नीचे आने लगी ।

ओह ! यही तो नहीं होना चाहिये था—डुग्गू निराश होकर कहने लगी ।

कोई बात नहीं । मैं ठीक हूँ । हम फिर कोशिश करेंगे-–पतंगपरी ने डुग्गू का हौसला बढ़ाते हुए कहा । और लहराती हुई डुग्गू की तरफ आने लगी । तभी एक ऊँचे पेड़ ने उस रंग-बिरंगी सुन्दर पतंग नीचे आते हुए देखा तो ललचा  उठा । वह एक बरगद का बड़ा और घना पेड़ था जिसकी शाखें बहुत दूर तक फैली थीं । जल्दी से अपनी कोमल टहनियाँ और बड़े पड़े नरम पत्ते आगे फैलाकर अपनी गोद में समेट लिया ताकि किसी कहीं काँटे कंकड़ों में खुद को नुक्सान न पहुँचा ले । । बड़े बड़े चिकने पतों पत्तों ने तालियाँ बजाकर पेड़ की खुशी ज़ाहिर की । 

प्यारी पतंग तुम्हें चोट तो नहीं आई ?

बिल्कुल नहीं । पर तुमने मुझे क्यों रोका । मैं तो जल्दी से अपनी दोस्त के पास जा रही थी ।

ज़रूर चली जाना ,लेकिन काफी थकी लग रही हो । मेरी घनी और ठण्डी छाँव में कुछ देर आराम करो ।

बेशक ,तुम्हारे पत्ते कितने हरे और चिकने हैं । पर नए पत्ते कोमल और लाल हैं । लेकिन क्या मैं यहाँ खुश नहीं रह सकूँगी

क्यों नहीं ? यहाँ दिन में बहुत सारी चिड़ियाँ सुबह से शाम तक गीत गाती और बतियाती रहती हैं । गिलहरियाँ किट् किट् कुट् कुट् करती सरपट दौड़ती हैं । रात में उल्लू और चमगादड़ों की चौपाल जमती है । सब तुमसे खूब बातें करेंगे । कहानियाँ कहेंगे । गीत भी सिखाएंगे । खाने के लिये मेरे पास खूब सारे स्वादिष्ट फल भी हैं ।

चिड़ियों गिलहरियों ने भी पतंग परी का स्वागत किया –अब तुम हमारे पास ही रहना ।  यह सब देख-सुनकर पतंग परी खुश होगई । उसने चिड़ियों के मीठे गीत सुने । गिलहरियों का खुशी में सरपट दौड़ना देखा । चमगादड़ों से रात की कहानियाँ सुनी । उसने भी सबको आसमान के किस्से सुनाए । उसे डुग्गू का ध्यान भी नहीं आया । पेड़ तो खुद पतंग परी को सदा के लिये अपने पास रखना चाहता था । लेकिन मुश्किल यह हुई कि जल्दी ही पेड़ के आसपास बच्चों की भीड़ लग गई । सब चिल्ल्ने लगे

अरे देखो ,पेड़ में एक पतंग अटकी है .” फिर वे झगड़ने भी लगे --

वह पतंग तो मेरी है , नहीं मेरी है , ..नहीं मेरी है । नहीं नहीं मेरी है .”

कुछ बच्चे पत्थर फेंकने लगे ।

ओह इस तरह तो पेड़ को नुक्सान पहुँचेगा !” --–परी कुछ उदास होगई तो एक चिड़िया ने पूछा --

तब क्या तुम जाना चाहोगी ?”

नहीं । इनमें से कोई मेरा दोस्त नहीं है ।

क्या वह है तुम्हारी दोस्त ?”--–एक टहनी ने छत पर खड़ी लड़की की ओर इशारा किया जो ललचाई आँखों से पतंग को देख रही थी और अपने आपसे ही बात किये जा रही थी –--"ओह मेरी प्यारी सी पतंग तुम पेड़ में अटककर क्यों रह गईँ हो ? क्या तुम्हें वहाँ ज्यादा अच्छा लग रहा है ? या इस संकोच में कि तुम्हें दूसरी पतंग ने और उड़ने नहीं दिया ? प्यारी परी तुम्हें इसके लिये ज़रा भी शर्मिन्दा नहीं होना चाहिये क्योंकि तुमने अन्त तक  मुकाबला किया । बस वापस आ जाओ मैं तुम्हारे बिना बहुत उदास हूँ ।

पतंग ने देखा तो अपने आपसे बोली – डुग्गू मेरी सबसे प्यारी दोस्त !

हम भी तो तुम्हारे दोस्त हैं । अच्छा लगेगा अगर कुछ दिन हमारे साथ रहो ।” --–कई पत्ते और टहनियाँ बोल पड़ीं । पतंग बड़े असमंजस में । वह कभी रुकने का आग्रह करते बड़े बड़े कोमल पत्तों को छुए तो कभी डुग्गू की तरफ देखे जो अब बरगद के पेड़ से कह रही थी --

तुमने इतने बड़े होकर भी मेरी छोटी सी पतंग को बहलाकर फुसलाकर अपने पास रोक लिया है । देखो तो मैं कितनी छोटी हूँ । मेरे हाथ बहुत छोटे हैं और मेरे पास एक लम्बी लकड़ी भी नहीं है कि मैं अपनी पतंग को तुम्हारे चंगुल से छुड़ा सकूँ । –यह कहते हुए उसने चेहरे को रुआँसा बना लिया । पत्तों ने मुँह लटका लिया ।

यह देख तमाम चिड़ियाँ चहक उठीं । गिलहरियाँ भी सरपट दौड़ती हुई लड़की की बात पर खुश हो रहीं थीं । पेड़ अपनी लम्बी जटाएं सम्हालते हुए थोड़ा शरमा गया । पतंग को थामकर बैठे पत्तों और टहनियों से बोला –हमें उस छोटी बच्ची के लिये पतंगपरी को जाने देना चाहिये । 

बरगद की बात सुनकर हवा का इठलाता मुस्कराता एक झौंका आया और हौले से परी को थामे बैठे पत्तों को सरकाया ।  नहीं नहीं हम नहीं जाने देंगे .” --पत्तों ने थोड़ी आनाकानी की तो हवा ने उन्हें सहलाते बहलाते हुए पतंगपरी को पत्तों की बाँहों से अलग किया और अपने कन्धों पर बिठाकर कर डुग्गू की तरफ चल पड़ी ।

परी हमें भूल तो नहीं जाओगी ?” –पत्तों ने पीछे से पुकारा तो परी लहराते हुए जोर से बोली --

कभी नहीं । सुबह शाम तुम्हारी कोमल गोद में लेटे सपनों को बुलाते हुए चिड़ियों से सुरीले गीत सुने । और भला कोई कैसे भूल सकता है !” 

पतंग के चले जाने पर पत्ते कुछ उदास थे लेकिन जब उन्होंने खुशी से उछलती और ताली बजाती उस छोटी बच्ची डुग्गू को देखा तो पत्ते भी उसके साथ ताली बजाने लगे । 

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

पतंग--कहानी

 

पतंग

----------------------

सूरज मन में पतंगों की जितनी रंगीन और मीठी कल्पनाएं संजोये रहता था , उसके पिता उतनी ही कड़वाहट के साथ पतंग उड़ाने वाले लड़कों की आलोचना किया करते थे | कहते थे कि यह निरे उजड्ड और बैठे-ठाले लोगों का काम है . यही नहीं वे पतंगबाज लड़कों की पढ़ाई का भविष्य निन्यानवे प्रतिशत अंधकार में डूबा हुआ मानते थे .

हमारा सूरज ऐसे फालतू शौक नहीं पालता | उसे अच्छा विद्यार्थी बनना है .”-–वे अक्सर अपने आपसे भी कहते थे और लोगों से भी कहा करते थे | पिता के मुँह से यह सब सुनकर सूरज अपनी पतंग-विषयक इच्छा को दबा देता था | पिता की नजरों में अच्छा बच्चा बनने का दबाब था लेकिन जैसा कि होता है कि किसी इच्छा को दबाओ तो वह और प्रबल होजाती है ,सूरज के मन में पतंग का मोह बढ़ता जा रहा था |

एक दिन आसमान में लहराती एक रंग-बिरंगी पतंग कटकर उसकी छत से लगे बरगद की टहनियों में आकर अटक गई तो उसने जैसे सूरज की इच्छा को बल दे दिया |

पापा मुफ्त में मिली पतंग के लिये तो मना नहीं करेंगे | फिर पापा को बताना क्या जरूरी है |विशू अपने घरवालों से छुपकर मोरपंख ढूँढ़ने जाता है | डम्पी पापा से छुपकर पिल्लों को बिस्किट खिलाता है | रज्जी डाकबँगला से कई बार गुलाब के फूल लाया है | फिर वह छोटी सी बात नहीं छुपा सकता क्या ! वह खरीदकर तो पतंग लाया नहीं है | वह खुद उसके पास आई है तो उसकी क्या गलती ?’--उसने खुद को समझाया और पतंग को छत पर एक पाट के पीछे छुपा दिया | तभी उसने शेरू को दरवाजे में घुसते हुए देखा | कटकर आई पतंग उसी की थी जिसे वह लेने आया था |

शेरू सूरज का पड़ोसी है और कई बातों में सूरज से बहुत आगे है | अपने मम्मी पापा की तरफ से उसे हर तरह की छूट है वह कहीं भी खेलने जा सकता है | नहीं में घंटों तैर सकता है | जब तक चाहे साइकिल चला सकता है और वक्त पड़े पर एक तमाचे का जबाब दो तमाचों से दे सकता है | घरवालों का कोई प्रतिबन्ध नहीं है उसपर | जबकि सूरज पर पापा की कड़ी नजर रहती है| वे उसे हर बात पर टोकते ही रहते हैं | किसी से झगड़ा होजाए तो पापा पहले सूरज को ही डाँटते हैं ,चाहे उसकी गलती न भी हो |

सूरज को यकीन है कि पापा-मम्मी दोनों ही उसका फेवर नहीं करने वाले | पतंग को शेरू को पतंग दिलवा कर छोड़ेंगे | और यही हुआ | मम्मी ने कहा ---पतंग तुम्हारे पास हो तो बेटा दे दो | तुम क्या करोगे उसका ? पापा तुम्हारे लिये कितनी सारी चीजें लाते रहते है ! ”

“ ‘कितनी सारी का क्या मतलब ?”-–सूरज के अन्दर एक उबाल सा उठा--– उसे यही पतंग चाहिये , अपनी छत पर आई हुई | शेरू के घर से या उसके हाथ से छीनकर तो वह लाया नहीं | इस तरह शेरू को पतंग मिलती तो क्या वह लौटा देता ?  मम्मी ने बिना जाने समझे ही कह दिया , ‘दे दो बेटा ..पर बेटा नही देगा तो नहीं देगा | करो जो चाहो ..”---सूरज यही कहने वाला था कि तभी उसे ध्यान आया कि सच्चाई और वीरता की शान में राजपूत राजा बेकार ही जान तक दे डालते थे | पर विदेशियों ने शब्दों की हेराफेरी से ही कितने ही देशों पर कब्जा कर लिया था | क्या वह जरा सी पतंग पर कब्जा नहीं कर सकता ? सो अनजान बनकर बोला--

कौनसी पतंग मम्मी ? मैंने तो कोई पतंग नहीं देखी ..मुझे पतंग पसन्द भी नहीं | ”

माँ को सूरज की बात पर यकीन होगया | वह कई बार सच बोलने का प्रमाण तो दे ही चुका था | एक बार मिठाई के डिब्बे से कई लड्डू निकालकर खाने की बात उसने खुद ही स्वीकार करली थी ,जबकि माँ को रिंकी और संजू पर शक था | एक बार जब वह नकल से उत्तर लिख आया था , यह भी उसने पापा को बता दिया था |

शेरू मुँह लटकाकर चला गया | पर जाते जाते नजरों से ही सूरज के साथ अपनी दोस्ती की समाप्ति की सूचना देगया | सूरज ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया | उस समय उसके लिये दोस्ती से ज्यादा पतंग ज़रूरी लग रही थी | वैसे भी होमवर्क की कॉपियों के लेन देन से अधिक उनका मेलजोल था भी नहीं | उस समय तो वह अपनी कामयाबी पर खुश था | और उसे रखने के लिये सही जगह के बारे में सोचने लगा |कुछ दिन बाद जब सब भूल जाएंगे तब वह पतंग को निकाल सकेगा |

दूसरे दिन शेरू दूसरी पतंग ले भी आया और सूरज को दिखा दिखा कर उड़ाने भी लगा पर सूरज अभी तक पतंग के लिये कोई सुरक्षित गोपनीय स्थान की तलाश में था |छत पर रखे पाट के नीचे छुपाना बिल्कुल सुरक्षित नहीं था | नीटू किलकिल काँटे की लकीर खींचने कभी भी उसका उपयोग कर सकता था | अपने इस नटखट भाई पर सूरज भरोसा नहीं कर सकता था |

काफी सोच विचार के बाद उसे बैठक में लगी बड़ी तस्वीर के पीछे पतंग के लिये सही जगह लगी |वहाँ न नीटू के शरारती हाथ पहुँच सकते थे न पापा की तेज नजर | गुलकी उसके कामों में न दखल देती है न ही ज्यादा छानबीन करती है | पर सूरज को पहला मोर्चा उसी से लेना पड़ा |पतंग को अखबार में लपेटकर जैसे ही बैठक मैं पहुँचा गुलकी जैसे उसी का इन्तजार कर रही थी |

भैया लो ये कागज | मेरे लिये फूल बना दो | कल गुलदस्ता बनाकर स्कूल ले जाना है |”

वैसे सूरज गुलकी का हर काम खुशी खुशी करता है | फूल बनाना उसका शौक भी है पर उस समय गुलकी की माँग उसे बेवक्त की रागिनी लगी |

गुलकी अभी मैं कुछ व्यस्त हूँ | तू मिनी के पास चली जा ,वह तुझे बुला भी रही थी |”

मिनी ! वह तुम्हें कहाँ मिली भैया ? वह तो कल ही बुआ के यहाँ आगरा चली गई |”

तो शायद परसों मिली होगी , वही याद रह गया है | तू अभी जया आंटी के घर से माँ को बुला ला .

माँ से क्या काम है ?”

बताऊँगा , पहले बुलाने जा तो सही |”

पहले बताओ .”---गुलकी अड़ गई | सूरज ने बेवशी के साथ देखा |जानता था कि गुस्सा करने से तो वह और फैल जाने वाली थी इसलिये प्यार से समझाया कि वह कहना मानेगी तो ऐसे फूल बनाकर देगा कि सब देखते रह जाएंगे | नहीं तो फिर नहीं... यह सुनते ही गुलकी चली गई | सूरज ने पलंग पर चढ़कर पतंग को तस्वीर के पीछे छुपा दिया ,पर जैसे ही मुड़ा तो देखा नींटू जी कमरे में आ चुके हैं | आते ही सीधा सवाल ठोक दिया—

तुमने वहाँ क्या छुपाया है भैया ?”

हद होगई  |”–सूरज को यह सवाल बहुत अखरा | हर कोई उसके पीछे जासूस की तरह लगा है | गुलकी से पीछा छूटा तो ये महाशय आ धमके | झल्लाकर बोला –--“हाँ छुपाए हैं बड़े बड़े लड्डू ..|”

लड्डू !!”-–नीटू की आँखें बिल्ले की तरह चमकीं –--“तब तो मैं जरूर लूँगा . यह कहकर वह पलंग पर चढ़ गया और तस्वीर तक हाथ बढ़ाने लगा | सूरज परेशान होकर नीटू को देखा |यह उसकी सीमा का अतिक्रमण था | वह अपनी कोई चीज इससे बचाकर नहीं रख सकता | छोटा होकर भी उस पर हावी रहता है | पापा का समर्थन जो मिला हुआ है इसे | पर वह भी किसी से कम नहीं | वह किसी से नहीं डरता | पापा से भी नहीं | नीटू क्या है ! इतना सोचते ही उसने नींटू के दोनों हाथ पकड़कर झटका तो वह नीचे गिर गया और चीख मारकर रोने लगा | चोट के कारण नहीं , सूरज के अपराध को गंभीर बनाने के लिये ताकि उसे बड़ी सजा मिले .पर सूरज को कोई परवाह नहीं थी |

शाम को पापा ने सूरज की खूब खिचाई की ,कहा –-“इतना बड़ा होगया है पर इतना तमीज नहीं कि अपने छोटे भाई बहिन के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है |”

सूरज को मालूम था कि पापा उसी को दोष देंगे इसलिये चुपचाप सुनता रहा | मन में एक सवाल जरूर उठा कि अपने हिसाब से पापा उसे जब चाहे बड़ा बना देते हैं और जब चाहे छोटा | क्यों ?  जब खाने की चीजें बाँटने या नीटू गुलकी की मदद की बात हो तो पापा उसे बड़ा कहते हैं और साइकिल चलाने , बाजार जाने या अपनी कोई राय देने की बात हो तो पापा उसे छोटा कहते हैं | पता नहीं क्यों उसकी इतनी खींचतान की जाती है |

उस दिन के बाद नीटू उसका खुलेआम विरोधी होगया | गुलकी को उसने अपने साथ कर लिया | दोनों साथ खाते और खेलते | सूरज को सुना सुनाकर बड़ी बड़ी योजनाएं बनाते | सूरज बहुत अकेला पड़ गया | अब उसे पतंग भी बोझ लगने लगी | पतंग छुपाने से उसे क्या मिला | न किसी को दिखा सकता है न उड़ा सकता है | शेरू को तो लौटाने से रहा और घर में बताना उनका विश्वास खोना होगा | उसे छुपाना भी एक समस्या है | फाड़कर फेंकने या जलाने से सारी कहानी खत्म की जा सकती है | पर ऐसा करना बुज़दिली होगा |सूरज बुजदिल नहीं है | अब वह पतंग को सुरक्षित जगह पर छुपाएगा भी और एक दिन उड़ाएगा भी |

मौका पाकर वह पतंग को लेकर अन्दर वाले कमरे में गया |कमरे में अँधेरा था जो बाहर से ज्यादा सघन लगता था |पर उसे परवाह नहीं थी | वैसे भी अभ्यस्त आँखों के आगे अँधेरा खुद ही कमजोर होजाता है |कमरे में एक बड़ा और पुराना सन्दूक ईँटों पर रखा था | उसके नीचे खाली जगह में सूरज ने पतंग को सरका दिया | यहाँ पतंग पूरी तरह सुरक्षित थी माँ झाडू लगाने जरूर आती थी पर सन्दूक के नीचे तो हाथ नही न डालती होगी | सूरज ने पतंग रख तो दी पर अनायास ही साँप बिच्छू की आशंका से जल्दी से हाथ खींचा तो सन्दूक की तली में निकली धारदार पत्ती कलाई को चीरती हुई निकल गई | खून की धार फूट पड़ी | वह पीड़ा से तड़फ उठा | जल्दी से जो कपड़ा मिला बाँध लिया | पर जो जमीन पर गिरी लाल बूँदें दिखीं तो पीड़ा को भूल गया | पापा को पता चलेगा तो सान्त्वना की जगह डाँटेंगे | एक बार इमली के पेड़ से गिर पड़ा था और पाँव में मोच आगई , तब पापा ने दिलासा तो नहीं दी , उल्टा दो थप्पड़ मारे और कहा कि ऐसे ऊधमी लड़कों को इससे भी ज्यादा दण्ड मिलना चाहिये | बिस्तर में पड़े पड़े उसे चिन्ता सता रही थी कि कलाई के घाव को कैसे छुपाए | पीठ पेट में होता तो कोई चिता न थी |  तभी उसे पूरी बाँह की शर्ट पहन लेने का विचार सूझा | इसके लिये चादर ओढ़े ही उसने माँ को पुकारा |

फुल शर्ट की क्या जरूरत पड़ गई सूरज ?”

जरा सर्दी लग रही है मम्मी | ”

सर्दी !...सर्दी का मौसम तो नहीं है | कहीं बुखार तो नहीं है ?”

नहीं मम्मी , बुखार उखार कुछ नहीं बस यूँ ही …|”

हूँ होगा तो भी तू क्या बताएगा ?”---यह कहकर माँ ने बुखार देखने के लिये वही हाथ पकड़ लिया |सूरज की कराह निकल गई .

अरे क्यों क्या हुआ ?”माँ ने कपड़ा खोलकर देखा |

अरे राम ! खून ..! सूरज यह कैसे लगी ? ”

कुछ नहीं मम्मी ,जरा सी तो चोट है | ठीक हो जाएगी |”

ठीक होगी बाद में | पहले यह बता कि लगी कैसे |”

छोड़ो भी मम्मी , लग तो गई ही है ना | पूछने से क्या फायदा | प्लीज पापा को मत बताना ..|”

माँ घाव पर मरहम लगाते हुए ध्यान से सूरज की बात सुनती रही |

दो तीन दिन बाद सूरज को उसके पापा ने अपने पास बुलाया | सूरज पिता के सामने जाने से डर रहा था वे ज्यादातर गलती पर डाँटने या समझाने पर ही बुलाते हैं | कलाई के घाव का उन्हें पता चल ही गया होगा | नहीं तो अब चल जाएगा |अब  होगा देखा जाएगा |

लेकिन वह चकित हुआ कि पापा ने उसे प्यार से पास बिठाया | हालचाल पूछा | सूरज के अन्दर कुछ हलचल सी हो रही थी | डाँट-फटकार से मन विद्रोह के बिगुल बजा देता है पर प्यार के दो बोल सब कुछ पिघला देते हैं | कुछ पल बाद पापा ने सूरज के सिर पर हाथ फेरकर पूछा –

पतंग उड़ाना बहुत अच्छा लगता है ?”

यह कैसा सवाल है ? किस घटना की भूमिका है ?’–सूरज का दिमाग चकराया | शायद पापा मन की थाह ले रहे हैं | इसलिये वह दृढ़ता के साथ बोला --

न ...नही तो , मैं तो पतंग का नाम भी नहीं लेता |”

नाम नहीं लेते हो पर पतंग के लिये कोई भी खतरा लेने तैयार रहते हो |”

न..नही तो पापा |”

डरपोक |” --पापा ने हल्की सी चपत लगाई  | सूरज और भी हैरान | पापा ने उसे डरपोक किस आधार पर कहा ? अँधेरा तो क्या , वह तो साँप-बिच्छुओं से भी नहीं डरता | तभी माँ उसी पतंग को लेकर आगई |देखकर सूरज की समझ में सब कुछ आगया | सिर झुकाकर अपनी गलती मान लेने के अलावा कोई चारा न था |

यह वही पतंग है न जिसे छुपाने तुम अँधेरे कमरे में गए , बिना किसी खतरे की परवाह किये हुए ? ”

जी . जी नहीं ..

तभी तो मैंने डरपोक कहा | जो अपने मन की बात नहीं कह पाए उसे और क्या कहा जाएगा ?”  

बेटा कोई सुने या ना सुने, समझे या ना समझे ,सच कहने में कोई हर्ज नहीं | बल्कि कहना ही चाहिये | कुछ कारण हैं कि मैं पतंगबाजी का विरोध करता हूँ पर इतना भी नहीं कि मेरे बेटे में सच बोलने का हौसला ही जाता रहे |”

यह कहकर पापा ने थैले में से दो सुन्दर पतंगें निकालकर सूरज को दे दीं | सूरज ने पापा के चेहरे को देखा | आँखों में नाराजी की जगह स्नेह था | उसने दोनों पतंगें एक तरफ सरकादीं और पापा से लिपट गया | अब उसे पतंग की जरूरत नहीं थी | उसे पतंगों से भी अच्छी चीज मिल गई थी –पापा का प्यार |