दादाजी की पगडी जैसी लम्बी रातें हैं
चुन्नू जी के चुनमुन चड्डी ,झबलों जैसे दिनलम्बी और उबाऊ,
जटिल सवालों सी रातें
उछल-कूद और मौज-मजे की
छुट्टी जैसे दिन
जाने कब अखबार धूप का
सरकाते आँगन
जाने कब ओझल होजाते
हॅाकर जैसे दिन
जल्दी-जल्दी आउट होती
सुस्त टीम जैसे
या मुँह में रखते ही घुलती
आइसक्रीम से दिन
ढालानों से नीचे पाँव उतरते हैं जैसे
छोटे स्टेशन पर ट्रेन गुजरते जैसे दिन।
कहीं ठहर कर रहना
इनको रास नहीं आता
हाथ न आयें उड-उड जायें
तितली जैसे दिन ।
पूरब की डाली से
जैसे-तैसे उतरें भी
सन्ध्या की आहट से उडते
चिडिया जैसे दिन ।
वाह
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना है। सादर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन दी।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर
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