गुरुवार, 14 अगस्त 2025

भैया का दोस्त

वैसे तो भैया के कई दोस्त थे लेकिन उनका वह दोस्त अजीब ही था । हम सबकी समझ से बाहर । स्याह काला रंग ,बड़े बाल , लम्बा डीलडौल ,झबरीली पूँछ ,पल पल झपकती,  कुछ चाहती हुई सी आँखें ,कीचड़ से सने पाँव ,लेकिन भैया को वह बहुत प्यारा था । सबसे प्यारा दोस्त । भैया उसे बीसा कहते थे क्योंकि उसके चारों पैरों में पाँच पाँच नाखून थे । जो आमतौर पर नहीं होते । भैया इसे उसकी खासियत बताते थे लेकिन वह मुझे ढोंगी लगता था ।

हाँ हाँ ढोंगी नहीं तो क्या , वैसे तो ऐसी अकड़ दिखाता है जैसे शेर हो, पर भैया को देख कैसे पूँछ हिलाने लगता है । बेचारा बन जाता है । ढौंगी ,पेटू ..।

अरे जा ..!”--भैया मेरी बात सुनकर चिढ़ जाते ।

ऐसे वैसे की रोटियों को सूँघता तक नहीं मेरा बीसा । वह पेटू नहीं ,प्रेम का भूखा है ।

प्रेम का भूखा है –! “ ---मैं भैया की नकल उतारती –--"क्या रोटियाँ नहीं खाता हमारे घर ?”

बड़ी आई घर ' वाली ! क्या घर तेरा अकेली का है जो रोटियों की धौंस जमाती है ?”भैया की जान बसती थी उसमें ।

उनकी दोस्ती कब कैसे हुई ,यह तो नहीं मालूम लेकिन कुछ दिनों से रोटियों का डिब्बा अक्सर खाली मिलता था । एक दिन मैंने देखा कि वे बगल में कागज का एक बण्डल दबाए जा रहे थे । उसमें रात की बची चार रोटियाँ थीं । कजरी ( गाय) के अलावा दरवाजे पर आए किसी पालतू या चिड़ियों के लिये माँ हमेशा कुछ रोटियाँ ज्यादा बनाकर रखती थीं ।

भैया ये रोटियाँ किसके लिये ?”—मैंने पूछा तो वे कुछ सकपका गए ।

वो .. वो ..चिड़ियों के लिये...नहीं ..नहीं मछलियों के लिये । नदी में नहाने जा रहा हूँ न ?”

मछलियों के लिये ? इतनी रोटियाँ ? मुझे तो नहीं लगता ।

तो फिर तुझे जो लगता है ,वही सही । तू कोई वकील या जज है मेरी ?”-- भैया तपाक् से बोले और मुझे लगभग धकेलते हुए चले गए पर मैं भी छोटी सही , बहिन तो उन्ही की थी । पता लगा ही लिया कि जनाब इतनी रोटियाँ एक कुत्ते के लिये लेजाते हैं । बात यह है कि माँ के अलावा घर में कुत्तों को कोई पसन्द नहीं करता था । पिताजी और मैं तो खासतौर पर । कुत्ते हमें गन्दगी और बीमारी का घर लगते थे । पिताजी बताते थे कि साँप का काटा एक बार बच जाएगा पर कुत्ते का काटा कभी नहीं । हाँ छोटे गुलफुले से पिल्ले ज़रूर बहुत अच्छे लगते थे । पर कुछ ही समय के लिये । फिर एक सच और भी दिमाग में बैठा था कि उन्हें कितना ही लाड़ प्यार से पालो पोसो , उनका अन्त दुखद और कष्टदायक होता है तभी तो किसी के लिये सबसे बुरे अन्त के लिये कुत्ते की मौत मरने का शाप देते मैं अक्सर सुनती थी ।

यह शहरों के उन घरों की बात नहीं जहाँ मँहगे विदेशी कुत्ते पालना पशु-प्रेम के साथ फैशन और स्टेटस सिम्बल  है । उनका रहना खाना देखभाल और सुविधाएं घर के सदस्य की तरह होती है । घुमाने और सफाई के लिये नौकर होते हैं । लेकिन गन्दे डबरों में लोट लगाकर आते बीसा के लिये न तो हमारे घर में जगह थी न ही दिल में । पिताजी  ने सुना तो भैया पर खूब बरसे । पर भैया सिर झुकाए चुपचाप सुनते रहे । किसी के गुस्सा को सहने में उन्हें महारत हासिल है । बोलना तो दूर सिर तक नहीं उठाते । इसलिये कोई उनसे देर तक नाराज  नहीं रहता था । पिताजी  भी नहीं । इसलिये बात को आगे बढ़ना था सो बढ़ी और एक दिन बीसा भैया के पीछ चला आया । ज़ाहिर है कि उनके संकेत पर ही आया होगा पर भैया उसे झिड़कते हुए ऐसा दिखा रहे थे जैसे इसमें उनका कोई हाथ नहीं ,ज़रूर पिताजी को दिखाने के लिये । लेकिन बीसा था कि भैया की हर झिड़की पर थोड़ा ठिठकता ,पलकें झँपकाता ,फिर पूँछ दबाए आगे उनके पीछे चल देता । इस तरह वह चबूतरे पर आगया और डरने का अभिनय करता बैठ गया । भैया ने पिताजी को देखते हुए उसे ठोकर मारते हुए कहा—-"चल उठ यहाँ से ..जब नहीं उठा तो एक पतली सी संटी उठा लाए ।

भैया के इस बर्ताव पर वह कूँ कूँ करता पसर गया मानो कह रहा हो ---'अब क्या हुआ दोस्त ,जो ...पर जो भी हो मारो ,..दुत्कारो पर जाऊँगा नहीं ..  भैया का तरीका काम आया । पिताजी भैया पर चिल्लाए –--"अब क्यों भगा रहा है दिलीप ? हौसला तो तूने ही बढ़ाया है उसका .”

यानी पिताजी ने हरी झण्डी दे दी । भैया को और क्या चाहिये था फौरन उसे पुचकारने लगे । पीठ को सहलाने लगे । अब धुले पुछे फर्श पर वह कीचड़ सने पैरों से आकर इस तरह साधिकार बैठ जाता जैसे यह घर हमसे ज्यादा उसी का हो । बैठा बैठा जीभ निकाले , लार टपकाता हाँफता रहता । मुझे मितली सी आती । सोचती कि पूरे कलेवर में मुझे ऐसी कोई बात नज़र नहीं आती जिस पर प्यार आए । पता नहीं भैया को क्या दिखता है इसमें ।

गर्मियों में जब हम गैलरी में दरी बिछाए ताश या कैरम खेलते , वह कहीँ से आकर भैया से सटकर बैठ जाता । भैया मेरी तरफ देखते मुस्कराते हुए उसकी गर्दन में ताथ डालकर दुलारते ।

ऐसी आत्मीयता !’–- मैं कुढ़ती । इस दुष्ट के आने से पहले भैया मुझे कितना प्यार करते थे ! जी चाहता कि कसकर दो डण्डे जमादूँ । पर मेरे चाहने से क्या होता । उसके लिये भैया हमेशा सजग रहते थे । फिर अब तो माँ के साथ पिताजी का भी सम्बल मिल गया था । उन्हें देख वह पंजे बढ़ाता ,पूँछ हिलाकर, पीठ के बल लेटकर अपनी कृतज्ञता दिखाता । माँ के लिये भी वह कजरी की तरह होगया था । माँ कजरी की भाषा समझती थीं ,बीसा की भी समझने लगीं । एक सुबह उन्होंने बड़ी आत्मीयता से रात की बात बताई कि बीसा रात के ग्यारह बजे जाने कहाँ से आया और उन्हें देखते ही कूँ कूँ करते बैठ गया । माँ ने उसे जाने के लिये कहा तो वहीं पसर गया । फिर उन्होंने मोटी तीन चार रोटियाँ बनाईं जिन्हें खाकर वह चुपचाप आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया ।

ठीक है माँ , मुझसे ज्यादा अब तुम्हारे लिये यह कुत्ता होगया । मैं रात में खाने माँगती तो कह देती—सुबह दूँगी बीनू । रात का खाना हजम नहीं होता ।

माँ मेरी शिकायत पर मुस्कराकर रह गईँ ।  अब कहीँ न कहीं मैं भी चाहने लगी कि मेरे लिये भी वह पंजा बढ़ाए । पर मुझे देख ऐसी उपेक्षा दिखाता कि मैं कटकर रह जाती

देखो भैया तुम्हार बीसा मेरे हाथ से रोटी नहीं खाता ।

तू उसे प्यार से थोड़ी खिलाती है ?” यह कहकर वे उसके सामने रोटी बढ़ाते तो वह लपककर मुँह में भर लेता ।

देखा ,रहीम ने ऐसे ही थोड़ी लिखा है कि –अमिय पिलावत मान बिन रहिमन मोहि न सुहाय ..

एक बार किसी ने उसके पाँव में कुल्हाड़ी मारदी । हुआ वहीं जिसका डर था । घाव गहरा था । हड्डी दिखने लगी । वे बरसात के दिन थे ।चारों ओर मक्खी मच्छर ही नहीं तमाम दूसरे कीट-पतंगे भी होते हैं उस पर कुत्ते का घाव । आसानी से ठीक नहीं होने वाला था । अब वह छटपटाता , लँगड़ाता घर में आजाता तो मैं कहती –भैया यह आफत पाली तुमने है पर भुगतेंगे हम सब । यहीँ सड़ेगा ,मरेगा ..

भैया ने ठहरी हुई नज़रों से मुझे देखा और सिर्फ इतना कहा –--"अगर तुम्हें ऐसा कुछ होजाए तो ?”

फिर वे कहीं से दवा ले आए और अपने एक दोस्त की मदद से बीसा के घाव में लगाते । वह पीड़ा से तड़फता ,छुटकर भागने की कोशिश करता पर भैया की डाँट खाकर चुप होजाता । एक दिन भैया ने खुश होकर बताया कि बीसा ठीक होगया है । यह सुकर मुझे भी अच्छा लगा । मैं भी कोशिश करने लगी कि भैया की खुशी के लिये बीसा को अपना बनालूँ पर मुझे इसका मौका ज्यादा नहीं मिल पाया ।

लगभग तीन महीने बाद की बात है । मैंने देखा भैया काफी गुमसुम रहने लगे हैं । मुझसे बात करने की बजाय कभी अकेले छत पर खड़े रहते तो कभी पेट दर्द के नाम कमरे में लेटे रहते । मुझसे उनकी वह उदासी व बेरुखी नहीं देखी गई । पास जाकर पूछा ---"भैया कोई परेशानी है तो मुझे बताओ ।

भैया ने मुझे खाली सी नज़रों से देखा ,होंठ हिले पर कुछ कहा नहीं ।

भैया बीसा कई दिनों से नहीं दिखा । क्यों नहीं आया ?”

तुम्हें क्या लेना देना बीसा से ?”--–भैया अचानक पलटकर तल्ख लहजे में बोले – नहीं आ रहा है तो तुम्हें तो खुश होना चाहिये । हँसो ..बजाओ ताली ..!”

मैं स्तब्ध । यह रूप पहली बार देखा था अपने भैया का । वे मुझे बहुत प्यार करते थे । पाँच-छह साल बड़े होकर भी मुझे अपनी हर बात एक दोस्त की तरह बताते थे । अपनी हर बात पिताजी तक मेरे द्वारा ही कहलवाते थे । वहीं मेरे भैया इतने दुखी , नाराज़ । मैंने चिन्तित होकर उनके दोस्त हेमन्त से उनके इस व्यवहार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि बीसा दुनिया से चला गया है ।

सुनकर मेरा दिमाग चकरा गया । हाथ पाँव शिथिल पड़ गए । कब ? कहाँ ? ..कैसे ?

हेमन्त बोला --जब दो दिन से बीसा नहीं दिखा तो हम लोग उसे ढूँढ़ने गए । गाँव में देखने के बाद हम खेतों की तरफ गए तो देखा कि दूर एक पेड़ के सहारे बीसा सो रहा है । जब उसे जगाया तो पता चला कि वह सदा के लिये सोगया है । हम लोगों ने दुखी होकर वहीं गड्ढा खोदकर उसे समाधि देदी ।

यह सब सुनकर मेरा हृदय जैसे बाहर निकलने को हुआ । आँखें भर भराकर बह चलीं । बीसा गया भी तो किस तरह ,दूर एकान्त में अकेला निरीह दुनिया को विदा कह गया मेरी मान्यता को झुठलाकर , मेरी नफरत पर तमाचा मारकर ..

काश मैं उसे प्यार कर पाती लेकिन मेरे पास अब पछताने के अलावा कुछ नहीं था ।   

(सन्1989 में चकमक में प्रकाशित और बाद में 'मुझे धूप चाहिये' संग्रह में शामिल)

बुधवार, 9 जुलाई 2025

पतंग-परी और डुग्गू

 एक थी पतंग । हरे पीले लाल नीले और जामुनी रंग वाली पचरंगी पतंग थी ।  एक लम्बे मजबूत धागे के का हाथ थामे आसमान में लहरा रही थी । हवा के साथ लय मिलाते फर् फर् ..सन् सन् गाते हुए कुछ इतरा भी रही थी । सारी दुनिया उसे छोटी लग रही थी । वह जिस डोर का हाथ थामे थी वह डोर डुग्गू के हाथ में थी । डुग्गू आठ साल की प्यारी सी बच्ची थी । उसे अपनी पतंग बहुत प्यारी थी । वह कहती थी -- मेरी पतंग परी जैसी है ।

क्या परी को तुमने देखा है डुग्गू ?” –कोई पूछे तो डुग्गू कहती --

मेरी दादी को सब मालूम है। उन्होंने परी को देखा भी है और मैंने अपनी किताब में भी पढ़ा है कि परी बहुत सुन्दर होती है ,दुनिया के लोगों से ज्यादा । उसके पंख होते हैं । वह जब चाहे हवा के साथ उड़कर कहीं भी जा सकती है । मेरी पतंग भी उड़ती है और तुम देख ही रहे हो कि कितनी खूबसूरत है .”-–यह कहते हुए वह खिलखिला उठती । 

उस समय जब परी आसमान में हवा के साथ लहरा रही थी , चिड़ियों से बातें करती हुई कुछ इतरा भी रही थी डुग्गू ने उसे पुकारा –--"परी अब आ जाओ । काफी देर सैर करली । थक जाओगी । फिर कल तो तुम्हारा मैच है ।

यह सुनकर परी लहराते हुए और ऊपर उड़ी और चिल्लाई—"हाँ मैं उसी की तैयारी कर रही हूँ ।  यहाँ मुझे बहुत अच्छा लग रहा है .”

अरे रुको ,मेरी बात सुनो । चिल्लाकर ऐसा कहते हुए डुग्गू ने ध्यान नहीं दिया कि उसने धागे को और ढीला छोड़ दिया है । हवा खिलखिलाई –-ये लो उड़ने की छूट तो तुम खुद ही दे रही हो और कहे जा रही हो कि लौट आओ

उई...!” –-डुग्गू ने अपनी भूल पर जीभ दाँतों में दबाई और डोर खींचते हुए चिल्लाई –--ज़रा ध्यान से परी ! क्या तुम्हें पता है कि जो पतंगें तुम्हारे आसपास मँडरा रही हैं । वे तुमसे लड़ने का इरादा लिये घूम रही हैं  

हाँ पता है पर मुझे कुछ नहीं होगा । -परी और तेजी से लहराई और इससे पहले कि दूसरी पतंगें उससे टकराने की सोचतीं परी उनसे जा भिड़ी । डुग्गू उसे खींचकर दूर ले जाना चाहती पर परी वहां से हटानी ही नहीं चाहती थी । पतंगें उसे उकसाए जा रही थीं । और हुआ वही जिसकी डुग्गू को आशंका थी । जी जान से लड़ते हुए परी के पंख कट गए तो वह और उड़ न सकी और नीचे आने लगी ।

ओह ! यही तो नहीं होना चाहिये था—डुग्गू निराश होकर कहने लगी ।

कोई बात नहीं । मैं ठीक हूँ । हम फिर कोशिश करेंगे-–पतंगपरी ने डुग्गू का हौसला बढ़ाते हुए कहा । और लहराती हुई डुग्गू की तरफ आने लगी । तभी एक ऊँचे पेड़ ने उस रंग-बिरंगी सुन्दर पतंग नीचे आते हुए देखा तो ललचा  उठा । वह एक बरगद का बड़ा और घना पेड़ था जिसकी शाखें बहुत दूर तक फैली थीं । जल्दी से अपनी कोमल टहनियाँ और बड़े पड़े नरम पत्ते आगे फैलाकर अपनी गोद में समेट लिया ताकि किसी कहीं काँटे कंकड़ों में खुद को नुक्सान न पहुँचा ले । । बड़े बड़े चिकने पतों पत्तों ने तालियाँ बजाकर पेड़ की खुशी ज़ाहिर की । 

प्यारी पतंग तुम्हें चोट तो नहीं आई ?

बिल्कुल नहीं । पर तुमने मुझे क्यों रोका । मैं तो जल्दी से अपनी दोस्त के पास जा रही थी ।

ज़रूर चली जाना ,लेकिन काफी थकी लग रही हो । मेरी घनी और ठण्डी छाँव में कुछ देर आराम करो ।

बेशक ,तुम्हारे पत्ते कितने हरे और चिकने हैं । पर नए पत्ते कोमल और लाल हैं । लेकिन क्या मैं यहाँ खुश नहीं रह सकूँगी

क्यों नहीं ? यहाँ दिन में बहुत सारी चिड़ियाँ सुबह से शाम तक गीत गाती और बतियाती रहती हैं । गिलहरियाँ किट् किट् कुट् कुट् करती सरपट दौड़ती हैं । रात में उल्लू और चमगादड़ों की चौपाल जमती है । सब तुमसे खूब बातें करेंगे । कहानियाँ कहेंगे । गीत भी सिखाएंगे । खाने के लिये मेरे पास खूब सारे स्वादिष्ट फल भी हैं ।

चिड़ियों गिलहरियों ने भी पतंग परी का स्वागत किया –अब तुम हमारे पास ही रहना ।  यह सब देख-सुनकर पतंग परी खुश होगई । उसने चिड़ियों के मीठे गीत सुने । गिलहरियों का खुशी में सरपट दौड़ना देखा । चमगादड़ों से रात की कहानियाँ सुनी । उसने भी सबको आसमान के किस्से सुनाए । उसे डुग्गू का ध्यान भी नहीं आया । पेड़ तो खुद पतंग परी को सदा के लिये अपने पास रखना चाहता था । लेकिन मुश्किल यह हुई कि जल्दी ही पेड़ के आसपास बच्चों की भीड़ लग गई । सब चिल्ल्ने लगे

अरे देखो ,पेड़ में एक पतंग अटकी है .” फिर वे झगड़ने भी लगे --

वह पतंग तो मेरी है , नहीं मेरी है , ..नहीं मेरी है । नहीं नहीं मेरी है .”

कुछ बच्चे पत्थर फेंकने लगे ।

ओह इस तरह तो पेड़ को नुक्सान पहुँचेगा !” --–परी कुछ उदास होगई तो एक चिड़िया ने पूछा --

तब क्या तुम जाना चाहोगी ?”

नहीं । इनमें से कोई मेरा दोस्त नहीं है ।

क्या वह है तुम्हारी दोस्त ?”--–एक टहनी ने छत पर खड़ी लड़की की ओर इशारा किया जो ललचाई आँखों से पतंग को देख रही थी और अपने आपसे ही बात किये जा रही थी –--"ओह मेरी प्यारी सी पतंग तुम पेड़ में अटककर क्यों रह गईँ हो ? क्या तुम्हें वहाँ ज्यादा अच्छा लग रहा है ? या इस संकोच में कि तुम्हें दूसरी पतंग ने और उड़ने नहीं दिया ? प्यारी परी तुम्हें इसके लिये ज़रा भी शर्मिन्दा नहीं होना चाहिये क्योंकि तुमने अन्त तक  मुकाबला किया । बस वापस आ जाओ मैं तुम्हारे बिना बहुत उदास हूँ ।

पतंग ने देखा तो अपने आपसे बोली – डुग्गू मेरी सबसे प्यारी दोस्त !

हम भी तो तुम्हारे दोस्त हैं । अच्छा लगेगा अगर कुछ दिन हमारे साथ रहो ।” --–कई पत्ते और टहनियाँ बोल पड़ीं । पतंग बड़े असमंजस में । वह कभी रुकने का आग्रह करते बड़े बड़े कोमल पत्तों को छुए तो कभी डुग्गू की तरफ देखे जो अब बरगद के पेड़ से कह रही थी --

तुमने इतने बड़े होकर भी मेरी छोटी सी पतंग को बहलाकर फुसलाकर अपने पास रोक लिया है । देखो तो मैं कितनी छोटी हूँ । मेरे हाथ बहुत छोटे हैं और मेरे पास एक लम्बी लकड़ी भी नहीं है कि मैं अपनी पतंग को तुम्हारे चंगुल से छुड़ा सकूँ । –यह कहते हुए उसने चेहरे को रुआँसा बना लिया । पत्तों ने मुँह लटका लिया ।

यह देख तमाम चिड़ियाँ चहक उठीं । गिलहरियाँ भी सरपट दौड़ती हुई लड़की की बात पर खुश हो रहीं थीं । पेड़ अपनी लम्बी जटाएं सम्हालते हुए थोड़ा शरमा गया । पतंग को थामकर बैठे पत्तों और टहनियों से बोला –हमें उस छोटी बच्ची के लिये पतंगपरी को जाने देना चाहिये । 

बरगद की बात सुनकर हवा का इठलाता मुस्कराता एक झौंका आया और हौले से परी को थामे बैठे पत्तों को सरकाया ।  नहीं नहीं हम नहीं जाने देंगे .” --पत्तों ने थोड़ी आनाकानी की तो हवा ने उन्हें सहलाते बहलाते हुए पतंगपरी को पत्तों की बाँहों से अलग किया और अपने कन्धों पर बिठाकर कर डुग्गू की तरफ चल पड़ी ।

परी हमें भूल तो नहीं जाओगी ?” –पत्तों ने पीछे से पुकारा तो परी लहराते हुए जोर से बोली --

कभी नहीं । सुबह शाम तुम्हारी कोमल गोद में लेटे सपनों को बुलाते हुए चिड़ियों से सुरीले गीत सुने । और भला कोई कैसे भूल सकता है !” 

पतंग के चले जाने पर पत्ते कुछ उदास थे लेकिन जब उन्होंने खुशी से उछलती और ताली बजाती उस छोटी बच्ची डुग्गू को देखा तो पत्ते भी उसके साथ ताली बजाने लगे ।