मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

चिड़िया जैसे दिन

दादाजी की पगडी जैसी
लम्बी रातें हैं ।
मुन्नू जी के
चुनमुन चड्डी ,झबलों जैसे दिन ।

लम्बी और उबाऊ ,
जटिल सवालों सी रातें
उछल-कूद और मौज-मजे की
छुट्टी जैसे दिन ।

जाने कब अखबार धूप का
सरकाते आँगन ।
जाने कब ओझल होजाते
हॅाकर जैसे दिन ।

जल्दी आउट हो जाते ये
सुस्त टीम से दिन ।
मुँह में रखते ही घुल जाती
आइसक्रीम से दिन

ढालानों से नीचे पाँव उतरते जैसे दिन
छोटे स्टेशन पर ट्रेन गुजरते जैसे दिन।

कहीं ठहर कर रहना
इनको रास नहीं आए
हाथ न आयें उड-उड जायें
तितली जैसे दिन ।

पूरब की डाली से
जैसे-तैसे तो उतरें 
सन्ध्या की आहट से उडते

चिडिया जैसे दिन ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. हॉकर जैसे दिन!! जिस दिन यह कला मुझे आ गयी उस दिन मैं समझूँगा कि मैं रचनाकार कहलाने योग्य बन पाया हूँ! नहीं तो बस यूँ ही बेकार गया जीवन!

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    उत्तर
    1. मुझे मालूम है कि आप कितने बड़े रचनाकार हैं . सहज टिप्पणियों में ही वह बात कह देते हैं जिसे आमतौर पर कह पाना मुश्किल है . आपको दूसरों की प्रतिभा बड़ी दिखाई देती है यह भी आपका बड़प्पन है . खैर आपकी बातें मुझे यह विश्वास करा ही देतीं हैं कि मैंने कुछ अच्छा लिखा है .

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    2. मुझे मालूम है कि आप कितने बड़े रचनाकार हैं . सहज टिप्पणियों में ही वह बात कह देते हैं जिसे आमतौर पर कह पाना मुश्किल है . आपको दूसरों की प्रतिभा बड़ी दिखाई देती है यह भी आपका बड़प्पन है . खैर आपकी बातें मुझे यह विश्वास करा ही देतीं हैं कि मैंने कुछ अच्छा लिखा है .

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  2. अद्भुत कविता। कुछ उपमान ज़बरदस्त हैं। ढलानों से उतरते दिन, धूप का अख़बार,छोटे स्टेशन से गुज़रती ट्रेन जैसे दिन, चुनमुन के चड्डी झबलों जैसे दिन। अद्भुत और टटके बिम्ब हैं। एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद्। मैं इस ब्लॉग पर पहले क्यों नही आया?

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  3. नवीन उपमाएं रहना का स्वाद बढ़ा देती हैं ... और आपमें तो ये खूबी है ...
    सुन्दर रचना ...

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