एक संस्मरण
यह बात उस समय की है जब मैंने दूसरी कक्षा ही पास की थी । आगे पढ़ाने के लिये काकाजी मुझे अपने साथ बड़बारी ले गए थे जहाँ दो साल पहले ही उनका तबादला हुआ था ।
बड़बारी मध्यप्रदेश में भिण्ड -ग्वालियर के बीच लेकिन मुरैना जिले का एक पहाड़ी गाँव है .उन दिनों वहाँ तक सड़क नहीं थी . ट्रेन से रिठौरा उतरकर पैदल जाते थे . बस से मालनपुर उतरकर जाना होता था . पानी के लिये नीचे तलहटी में एकमात्र कुआँ था ,जहाँ रात में जाने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था क्योंकि सूरज की पलकें बन्द होते ही वहाँ डाकुओं जिन्हें वहाँ बागी कहा जाता था , का राज होता था . पथरीली ज़मीन पर वहाँ पेड़ पौधों के नाम पर केवल एक नीम का पेड़ और दो तीन सिरस (शिरीष) केपेड़ थे . बेतरतीबी से जहाँ तहाँ बैठी भेड़-बकरियों जैसे मकान बने थे . गाँव के बाहर स्कूल था . जिसे पिताजी गेंदा ,गुलदाऊदी जैसे पौधों से हरा भरा बनाने की कोशिश करते रहते थे .
सोचिये कि पाँच--छह साल की बच्ची को अपनी माँ से दूर जाना पड़े , वह भी पढ़ने के लिये और उस पर भी वहाँ बहुत सारे डर हों तो.. ,कैसा लगेगा ? मुझे ठीक वैसा ही लगता था । यानी कि बहुत ही बुरा । एक तो मुझे माँ की याद आती रहती थी ,ऊपर से पिताजी से लाड़ प्यार की जगह गिनती पहाड़ों और छोटे-छोटे जोड़ बाकी गुणा भागों के पीछे बड़ी-बड़ी डाँटें खाने मिलतीं रहती थीं । मेरी भूख गायब होजाती थी ठीक वैसे ही जैसे स्कूल में टीका लगाने वाले डाक्टर के आने की बात सुन कर हम लोग स्कूल से गायब होजाते थे । अकेले में मौका पाकर मैं खूब रो लेती थी । काकाजी को रोना जरा भी पसन्द नही था । कहते थे कि रोने वाले बच्चे हर जगह फेल होते हैं । वे कभी आगे नही बढ़ सकते । शायद कभी कभी मेरी लाल आँखों और फ्राक में जगह जगह गीले धब्बों को देख कर ही वे ऐसा कहते हों । लेकिन रोने से भी ज्यादा उन्हें नापसन्द था डरना ।
काकाजी तो बेशक बहादुर थे । वे रात के घुप अँधेरे में नदी के घाट पर ,जहाँ एक मसान रहता था ,अकेले ही जा सकते थे । उफनती नदी को पार कर सकते थे जबकि उसमें कई तरह के साँप मछलियाँ और मगर भी होते थे । वे न भूतों से डरते थे न चुड़ैलों से और ना ही राक्षसों से । बल्कि मौका पड़ने पर उन्हें मजा भी चखा सकते थे लेकिन पता नही क्यों काकाजी की बहादुरी भी मुझे डरने से नही रोक पाती थी । काकाजी को क्या मालूम कि मेरे सामने कितने-कितने डर थे जो हर वक्त मुझे दूसरी कई खुशियों तक जाने ही नही देते थे ।
वैसे तो वहाँ सबसे बड़ा डर डाकुओं का था लेकिन पहले ही बतादूँ कि मेरे मन में डाकुओं का डर केवल बन्दूक के कारण था . बन्मैंदूक के कारण ही उस समय डाकू और पुलिस में मुझे कोई भेद नज़र नहीं आता था .अगर डाकू लोग बन्दूक नही रखते तो मैं डाकुओं से तो डरने वाली थी नही । लेकिन मेरे सामने दूसरे अनेक डर थे जिनमें एक डर था सरपंच काका की बतखों का ।
बतखें मुझे बहुत अच्छी लगती थी पर वे जाने क्यों एक बार अपनी लम्बी गर्दन को साँप की तरह लहराती हुई मेरे पीछे दौड़ पड़ी थीं. तब से मुझे लगने लगा था कि बतखों के रूप में जरूर कोई राक्षस है .
दूसरा डर था सरपंच काका के खर्राटों से पैदा हुआ डर । बात यह थी कि हमारे दिन के सारे कार्य तो स्कूल में ही सम्पन्न होते थे लेकिन सोने के लिये सरपंच कक्का की कचहरी में आना होना था . यह काक्का का ही निर्देश था .क्योंकि रात में बागियों का डर रहता है, इसलिये शाम का धुँधलका उतरने से पहले काकाजी स्कूल को ताला लगा कर सरपंच जी के घर आ जाते थे ।
हाँ, तो सरपंच कक्का के खर्राटे काफी बुलन्द हुआ करते थे । ऐसे कि मानो खुरदरी छत पर कोई लगातार चारपाई घसीट रहा हो । ऐसे में नींद को तो उड़ना ही था । किसी आहट पर चिड़िया तो उड़ ही जाती है कि नही ? पर नींद उड़ने पर बुरे व डरावने विचार ही क्यों आते हैं ,यह मुझे आज तक पता नही चला । उस समय हम अनायास ही एक डरावनी सी अँधेरी गुफा में चले जाते हैं ।
जब नींद उड़ जाती थी तब पुरन्दर और गन्धू की बातें मेरे दिमाग पर हावी होजातीं थी जैसे हिरण के छोटे बच्चे को अकेला पाकर लकड़बग्घा हावी होजाता है । पुरन्दर और गन्धर्व पहले दिन से ही मेरे दोस्त बन गए थे । पुरन्दर ने स्कूल के पीछे एक पिशाच और चुड़ैल होने की जानकारी तभी दे दी थी । उसी से मैंने जाना कि चुड़ैल के पाँव पीछे की ओर होते हैं । बाल सुनहरे होते हैं और आँखें लाल । नजर से ही खून पी लेतीं हैं किसी का । स्कूल के पीछे वाली खदान में रोज चुड़ैलों के घुँघरू बजते हैं । वे चुड़ैलें रात के अँधेरे में यहीं कहीं मेरे आसपास तो नही है..। इस कल्पना से घबराकर मैं काकाजी को देखती । उस समय चारपाई में धँसे हुए से काकाजी बिल्कुल बच्चे जैसे लगते थे । क्योंकि मुझे पता था कि डर की बात सुन कर वे तुरन्त एक कठोर 'मास्टरसाहब' बन जाने वाले हैं इसलिये मैं उन्हें जगाने का विचार छोड़ देती । जैसे ट्रैफिक में फँसने के डर से लोग अक्सर मुख्य सड़क छोड़ देते हैं ।
लेकिन तब इन सबसे भी बड़ा एक और डर था । वह डर था 'कमलापती 'का । यह बड़बारी में मेरे शुरु के दिनों की ही बात है ।
"यह कमलापती कौन है ?"--मैंने पूछा तो केशकली ने तुरन्त मेरा मुँह बन्द कर दिया । केशकली मानू मौसी की बेहद दुबली--पतली और बहुत ही चतुर लगने वाली लड़की थी । वहाँ मेरी सबसे पहली सहेली भी ।
" ओ पागल ! इस तरह उसका नाम मत ले । कभी-कभी नाम सुन कर ही 'परगट 'होजाता है । और फिर मेंढ़क ,बिल्ली ,कबूतर कुछ भी बनाकर अपने झोला में धर ले जाता है ।"
"फिर क्या करता है ?"
"करता क्या है मार काटकर ,और तल-भूनकर कर खा जाता है । खास तौर पर लड़कियों को । मेरी बुआ झूठ थोड़ी न कहती है !"
मुझे याद आया कि सरपंच काकी भी एक दिन अपनी बेटी रामरती से कह रही थीं कि तूने अगर रोना बन्द नही किया तो देख अभी बुलाती हूँ कमलापती को ...। उनकी बेटी ने तुरन्त झरने की तरह फूटती रुलाई को आश्चर्यजनक तरीके से होठों में ही समेट लिया था । हाल यह था कि कमलापति का नाम सुनते ही गलियों से बच्चे ऐसे गायब होजाते थे जैसे लू चलने से मच्छर गायब होजाते हैं ।
मुझे यकीन होगया कि कमलापती एक राक्षस है..।
"राक्षस..नही भयानक राक्षस कहो ।"---केशू बोली---"मेरी अम्मा ने देखा है उसे । ताड़ की तरह ऊँचा ,पहाड़ जैसा चौड़ा और कढ़ाई के तले जैसा काला राक्षस है। उसके नुकीले सींग ,बड़े-बड़े दाँत हैं . लत्ते सी लटकती लपलपाती जीभ है और खून टपकाती सी आँखें । वैसा ही ,कहानी में राजकुमारी को चुरा ले जाने वाले राक्षस जैसा ।"
अब हाल यह था कि यह तस्वीर मेरे आजू--बाजू जब चाहे चलना शुरु होजाती थी । मुझे लगता कि मैं भी राजकुमारी हूँ और राक्षस कमलापति जाने कब कहाँ से आकर मुझे चिड़िया बनाकर ले जाएगा और पिंजरे में बन्द कर देगा । वे मेरे सबसे बुरे और डरावने दिन थे ।
एक दिन जब इतवार की छुट्टी थी और मैं कासिम दादा के घर से मुर्गियों के ढेर सारे चूजे देख कर स्कूल की तरफ लौट रही थी कि रास्ते में गन्धू मिला । उसने हाँफते-हाँफते एक भयानक खबर सुनाई---" जीजी बाई , जीजीबाई ,कमलापती स्कूल की तरफ गया है । मैंने बाबा को कहते सुना था कि कमलापती मास्टर साब के पास बैठा है ।"
उस समय मेरी दशा उस सपने जैसी होगई जिसमें हम किसी संकट से भागना चाहते हैं पर भाग नही सकते । मैं भागती भी कैसे ? काकाजी अकेले जो थे स्कूल में । बेशक काकाजी बहादुर थे पर एक राक्षस से लड़ने के लिये ताकत भी तो चाहिये न । काकाजी को तो वह सूखे तिनके की तरह तोड़-मरोड़ कर फेंक देगा । अपने पिता की बेवशी और दुर्दशा की कल्पना करके मैं बुरी तरह रोने लगी खूब हिलक हिलककर , जोर जोर से .."
संयोग से उसी समय काकाजी बाहर आए और मुझे इस तरह रोती देख प्यार से पूछा --
"अरे घुर्रा !!" ( काकाजी बहुत प्यार से मुझे घुर्रा कह कर पुकारते थे) ---अपने पिता को सलामत पाकर मैं खुशी के मारे उनसे लिपट कर रोने लगी ।
" अरे , अरे क्या हुआ बेटी ?"
"आप तो ठीक हैं ना ,मैं बहुत डर गई थी ?"
"क्यों डर गई , मैं तो अच्छा भला हूँ । आ जा अन्दर चलें ...।"
"नही ,"..---मैंने पाँव पीछे खींचे .
"क्यों ?"
"वो अन्दर अभी बैठा है न ?"
"वो कौन?"
"वो ...कम..ला..पती... "
यह सुनते ही काकाजी मुझे गोद में उठाकर अन्दर ले गए ।
"कमलापति ...लो इस लड़की को अपने साथ ले जाओ ।"
मैं डर के मारे संज्ञाहीन सी होगई थी । आँखें कस कर बन्द करलीं थीं मानो ऐसा करना मुझे संकट से बचा लेगा ।
मुझे याद आया कि काकाजी पटाखों से मेरा डर दूर करने के लिये अचानक मेरे बगल में पटाखा चला देते थे या मुझसे ही पटाखे चलवा लेते थे । अँधेरे का डर निकालने के लिये भी वे मुझे अँधेरे कमरे में अपना बटुआ लाने भेज देते थे लेकिन मेरी हिम्मत बढ़ाने के लिये मुझे एक राक्षस को ही सौंप देंगे ,ऐसी आशंका मुझे हरगिज नही होनी थी पर होनाी क्या काकाजी ने तो मुझे उसके हाथों में ही सौंप दिया । तभी दो मजबूत हाथों ने मुझे सम्हाला । मैंने उसे हँसी के साथ कहते हुए सुना--"सच्ची भेज दो मास्टर साहब । गुड़िया का मन लग जाएगा । इतने ही बड़े हमारे मुन्नी पप्पू भी हैं । घर में खूब दूध-दही और मक्खन होता ही है । कोई कमी न होगी ।"
बिल्कुल आदमी जैसी आवाज ।
मैंने चौंक कर आँखें खोलीं और बरबस ही मुँह से निकल पड़ा ---"अरे यह तो आदमी हैं! "
यह सुन कर काकाजी और कमलापति ने जोर का ठहाका लगाया ।
मैं जैसे एक अँधेरी गुफा से बाहर निकल आई थी ।
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