१९८८ की एक रचना
---------------------------
एक तो उम्र का तकाजा और दूसरे खानेपीने में कसर ,सो चांदुल सुबह साथी गाय-भैंसों के साथ जंगल चली तो जाती है लेकिन लौटते हुए एक एक कदम भारी हो जाता है .पैर कहीं के कहीं पड़ते है .
“ चांदुल मौसी ,अब तो तुम घर रहकर आराम करो . वन-वन भटककर चरने के दिन नहीं रहे तुम्हारे .अब तो जो भी मिल जाए खूंटे पर ही खा लिया करो ”—साथी जानवर समझाते हैं पर चांदुल का मन नहीं मानता .एक तो घर पर
अब चारे के नाम पर सूखे टटेरे मिलते हैं जिन्हें चबाते चबाते जबड़ा दुःख जाता है पर पेट नहीं भरता . फिर बाहर निकलने की आदत छूटती नहीं . बाहर खुला आसमान ,
हरे-भरे पेड़-पौधे ,तमाम पाँख-पखेरू .नदी की धारा ..बगुला सब उसके पुराने दोस्त हैं .उन्हें देखे बिना चांदुल का जी नहीं लगता .
एक समय था जब इस दुधारू भैंस की नजर उतारी जाती थी . एक समय में कम से कम दस-बारह लीटर दूध देती थी .उसके आगे बिना दाना –दलिया ,खली-‘पीना’ के भूसा नहीं रखा जाता था .और गुड़ तिल अलसी और तेल की खुराक अलग . सारा घर उसकी देखभाल करता था कि चांदुल प्यासी तो नहीं ..चांदुल कीचड़ में तो नहीं बैठी ...की चांदुल धूप तो नहीं लग रही ...शरीर चिकना होगया था . हड्डी कहीं नाम को नहीं दिखती थी . चलती थी तो जैसे धरती दमदमाती थी . बच्चों ने उसे चांदुल नाम दिया था पर मालिक किसन उसे 'कामधेनु' कहता था . गले में काला कपड़ा , कछुआ की हड्डी , और न जाने क्या क्या बाँध रखा था कि किसी की ‘हाय’ न लगे . बूढी होते-होते उसने पांच चान्दुलें देकर किसनलाल का घर भर दिया .दूध से भी और रुपयों से भी .
अब उसकी वैसी देखभाल नहीं है . मंगली और कजरी की तरह उसे हरी घास नहीं मिलती . सूखा भूसा डालते समय बंसी की अम्मा एक झिड़की भी दे जाती है कि ,‘इसके लिए रोज गाडीभर चारा कहाँ से लाएं ?’ तो क्या हुआ चांदुल के लिए वह अपना घर है .
“इसी खूंटे पर जिन्दगी बीती है और यही किसी दिन मर जाऊँगी .तब तक तो बैठकर नहीं रहने वाली मेरे बच्चो !
रोज
की तरह छोटे बड़े साथियों के साथ मन बहलाती चांदुल घर लौटी और तभी उसके कानों में
आवाज आई “यही है देखलो .”
“ यह ? यह तो एकदम
बूढ़ी है .”
“ बूढ़ी है तो क्या ,डील-डौल नहीं देखते ?
अकेली दो ‘पडों’ की बराबर है .हजार रुपए कोई भी हंसकर दे देगा .” ”
“ मैं पांच सौ से ज्यादा नहीं दूंगा .”
“चलो न तुम्हारी न मेरी ,सात सौ में बात
पक्की .”
चांदुल
ने देखा दो आदमी हरी-नीली लुंगियां पहने ,सिर से कपड़ा बांधे उसी को घूर रहे हैं
.दोनों के हाथ में लाठी है .
कुछ
समझी कुछ नहीं .पर इतना जान गई कि उसे इस घर से निकाला जा रहा है क्योंकि किसन ने
खूंटे से उसकी रस्सी खोलकर उन लोगों के हाथ में दे दी . वे रस्सी को खींचने लगे पर
चांदुल ने पाँव जैस जमीन में गडा दिए .
“ चल चल ..” एक ने टांगों में
लाठी मारी .चांदुल ने बेवशी के साथ किसन को देखा मानो कह रही हो –मुझे क्यों दूर
कर रहे हो . मैं किसी को कोई परेशानी नहीं दूंगी पर आखिरी दिन भी यहीं गुजार लेने
दो ना ..अब कहाँ है बंसी जो पूरी रात नहीं सोया था जब एक रात वह लौटी नहीं थी .
सुबह जब लौटी तो बंसी उसकी गर्दन से लिपटकर रोया था . कहाँ है बंसी की माँ जिसने उसे
बेचने के विरोध में दो दिन रोटी नहीं खाई थी .
“ अरे ऐसे नहीं जाएगी . थोडा डंडा दिखाना
पड़ेगा .” यह किसन की आवाज थी .उसे कामधेनु कहने वाले किसन की .
“ सड़ाक..सड़ाक ..” पीठ पर कसकर डंडे
पड़े .चांदुल तडफ उठी . दोनों आदमी पूरी ताकत से चांदुल को खींच रहे थे और किसन पीछे
से हांके जा रहा था . गाँव के बाहर तक छोड़कर वह लौट आया जैसे वह चांदुल को जानता
ही न हो .
डूबते
सूरज की सुनहरी किरनों में बंसी की झोपडी चमक रही थी .पंछी चहचहाते हुए घर लौट रहे
थे लेकिन चांदुल घर से दूर जा रही थी . धीरे धीरे शाम धुंधला गई और साथ ही चांदुल
की यह उम्मीद भी कि कोई उसे लौटकर ले जाएगा .
(चित्र गूगल से आभार सहित )