पूसी पहुँची पटना जबसे ,
अपने पूरे घर में तबसे ,
है चुहियों का राज,
करूँ अब क्या ?
पहले-पहल एक ही
आई .
एक और फिर पडी दिखाई .
अब पूरा का पूरा कुनबा ,
दिन भर खेले छुआ-छुलाई .
और कबड्डी रात ,
करूँ अब क्या ?
ऊपर -नीचे सरपट
दौडें ,
जैसे किसी रेस के घोडे ।
आलू-प्याज पुलाव
पकौडे ,
फल भी नहीं अछूते छोडे ।
चिन्दी, कागज, डिब्बी-डिब्बे.
सभी कुतर कर थोडे-थोडे ,
कर डाले बेकार ,
करूँ अब क्या ?
पिंजरे को पहचान गई है .
टिकियों को ये जान गईं हैं .
देख सूँघ हिल-मिल जाती हैं
बच कर निकल-निकल जाती हैं .
कितनी खटपट करो डरालो ,
नाली बिल सब बन्द करालो .
कितना छका-थका लेती हैं .
कैसे राह बना लेती हैं .
करती हैं बेहाल ,
करूँ मैं क्या ...
करती रहती किट्..किट्..कुट्..कुट् ...
चुभती रहती चीं..चीं..चुक्..चुक्..
मचे रात-दिन धमा-चौकडी
अपनी सारी गई हेकडी
जमीं ठाठ से घर में ऐसे ,
घर इनके पुरखों का जैसे
सोपाते हैं जैसे-तैसे ..,
कैसे-कैसे हाल
...
करूँ अब क्या ?
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