सोमवार, 30 दिसंबर 2013

नई सुबह

नीम की सबसे ऊँची टहनी पर किट्टू ने देखा । अभी तो चारों तरफ अँधेरा था ।आसमान में थरथराते हुए से तारे और धुन्ध में डूबे हुए पेड-पौधे अभी रात शेष होने की सूचना दे रहे थे ।
वह दिसम्बर की आखिरी रात थी । कडकडाती सर्दी में पत्ता-पत्ता काँप रहा था । किट्टू का सारा शरीर बर्फ हुआ जारहा था । लेकिन नई सुबह का विचार उसके मन में ऊष्मा पैदा कर रहा था । 


इस सुबह का किट्टू को बेसब्री से इन्तजार था । अपनी माँ सोना गिलहरी और कई चिडियों से उसने महीनों पहले सुन रखा था कि पहली जनवरी की सुबह नई और अनौखी होगी क्योंकि इस बार पहली जनवरी को केवल साल ही नया नही होगा बल्कि सदी भी नई होगी । साल या सदी का बदलना किट्टू के लिये एकदम नई बात थी । इसलिये वह सबसे अदिक उत्साहित था । अपने सारे क्रियाकलाप छोड कर वह मुँडेर पर धूप का आनन्द लेता हुआ उत्सव की उन तैयारियों के बारे में सुनता रहता जो नववर्ष के स्वागत के लिये की जारहीं थी ।
हरियल ,मैना पंडुकी,बया, कबूतर और नीलकण्ठ ने गीतों का कार्यक्रम तैयार किया था ,कुछ इस तरह कि गाते-गाते सबेरा हो और नए साल का स्वागत मधुर गीतों से हो । वे सबको यह भी दिखा देना चाहते थे कि गीत गाना केवल कोयल, पपीहा, या श्यामा को ही नही ,उन्हें भी आता है और बेशक उनसे अच्छा ।
गौरैया, बुलबुल, फुदकी ,हुदहुद ,कठफोडवा, आदि ने नृत्य प्रस्तुत करने का जिम्मा लिया । उन्होंने मोर के परम्परागत नृत्य से अलग एक नई शैली का नृत्य तैयार किया था जिसमें उछलना, कूदना ,दौडना, खदेडना, और भिडना ,सब शामिल था । उनके विचार से खुशी जाहिर करने का यह एक बेहतर और मौलिक तरीका था ।
चींटू चूहे और छुटकी छछूँदर ने शानदार दावत रखी थी और उल्लू व चमगादड ने रोशनी का बढिया इन्तजाम किया था । 
अरे मुझको भी तो कोई काम दो...मुझे भी तो नई सुबह का स्वागत करना है ...। किट्टू इन तैयारियों को देख उत्साह से भर जाता । गौरैया कहना चाहती कि , अभी उँगली भर के हो बच्चे । क्या काम करोगे । लेकिन उसने चहक कर कहा----"बिल्कुल ,और तुम्हें जो करना है वह यह कि अपनी खूबसूरत पूँछ को सम्हाले मूँगफली के दाने कुतरते रहो और हम सबके काम की निगरानी करो ।"
दिसम्बर की उस आखिरी रात अपने वशभर कोई नही सोया । लेकिन रात ढलते-ढलते सबको नींद के झोंके आने लगे । अकेला किट्टू ही था जिसने एक पल भी झपकी नही ली । उसे फिक्र थी कि सोजाने पर हो सकता है कि नई सुबह के आने का पता ही न चले । और इस तरह तो वह सुबह का स्वागत कर ही नही सकेगा । इसलिये जैसे ही कुक्कू मुर्गे ने पहली बाँग दी--" कुकडू.....कूँ " वह फुर्ती से पेड की सबसे ऊँची टहनी पर जाकर बैठ गया । वहाँ से नई सुबह को सबसे पहले अभिवादन किया जा सकता था ।
लेकिन आसपास घिरे अँधेरे को देख उसे कुक्कू की जल्बाजी पर अचरज हुआ ।
"तुम्हारी अक्ल को क्या हुआ है कुक्कू ? क्या अब भी तुम्हें किसी ने टार्च दिखादी ,जो रात में ही सुबह का एलान कर बैठे ?"
"अरे नही किट्टू जी,"---कुक्कू झेंप कर बोला---"वह तो टी.वी. वालों ने टार्च का विज्ञापन जो करवाया था । कमाई वाली बात थी न । लेकिन अब तो मैंने यकीनन सही समय पर ही बाँग दी है । क्या है कि सर्दियों में सूरज सर रजाई से निकलने में अलसाते हैं इसलिये उजाला नही होपाता । बाँग सुन कर पहले चिडियाँ जागतीं हैं फिर वे सूरज जी को जगातीं हैं तब कहीं आराम से बाहर निकलते हैं जनाब इसीलिये तो....। सब्र करो ,कुछ ही देर में उजाला होने लगेगा ।"
सचमुच कुछ देर बाद पेड-पौधे धुन्ध की चादर उतारने लगे । तारे भी एक-एक कर गायब होने लगे । और फिर पूरब में क्षितिज पर लालिमा बिखरने लगी ।
बस अब नई सुबह आने को ही है---किट्टू ने खुश होकर देखा । जैसे झाँझी के सूराखों से दीपक की रोशनी फूटती है वैसे ही प्राची के क्षितिज से सुनहरी किरणें फूटने लगीं थीं । और कुछ ही पलों में पहाड के पीछे से किसी ने जैसे बडी लाल गेंद को उछाल दिया हो , सूरज उभर कर ऊपर उठने लगा।
"नई सुबह मुबारक हो ! मुबारक हो "---पेडों की टहनियों पर बैठीं चिडियाँ चहकने लगीं । पेड किसी झुनझुने की तरह बज उठे । तभी सोना ने पुकारा----"किट्टू , मुबारक़ नई सुबह । तुम वहाँ अकेले क्या कर रहे हो ? हमारे साथ आकर खुशियाँ मनाओ ।"
"नई सुबह ?" किट्टू ने आश्चर्य से पूछा ।
"कहाँ है नई सुबह ?" मैं तो उसके आने का रात से ही इन्तजार कर रहा हूँ ।"   
"तुम्हें नई सुबह नहीं दिखाई देती ?"---कालू कौवे का छोटा बच्चा बोल पडा जो दिखने में कालू जैसा ही बडा होने पर भी सूरत से काफी बचकाना और भोला लगता था----"तुम्हारी आँखें तो दुरुस्त हैं न ?" 
"मेरी आँखों को छोडो, पहले यह बताओ कि नई सुबह है कहाँ ?"--किट्टू ने तेजी से पूछा ।
"यही तो है नई सुबह ।" कौवा के बच्चे ने कहा और अपनी माँ से उसकी पुष्टि करवाने बोला----"है न माँ ?" 
"बिल्कुल " उसकी माँ विश्वास के साथ बोली --"यही तो है नई सुबह ।"
नन्हा किट्टू बडा हैरान हुआ । उसने फिर से चारों ओर गौर से देखा । सब कुछ रोज जैसा ही तो है 
सूरज रोज की तरह ही लाल रंग का उगा है । आसमान नीला ही है । सामने का पहाड आज भी सुरमई रंग का है । नदी उसी तरह पश्चिम की ओर बह रही है । खेत ,मैदान,पेड-पौधे फूल-पत्ते, सब जैसे कल थे वैसे ही तो आज भी हैं । यहाँ तक कि हवा भी उतनी ही ठण्डी है वैसी ही खुशबू वाली । आखिर नयापन है भी तो कहाँ ??
"मैं क्या जानूँ ?" कौवे का बच्चा किट्टू के तर्कों से उलझन में पड गया --" मेरी माँ कहती है , कैलेण्डर ,टी.वी., रेडियो, अखबार और सारी दुनिया कह रही है ,वह क्या गलत है ?"
लेकिन किट्टू के गले यह बात नही उतरी कि सिर्फ अखबार में छपने या कैलेण्डर के अंक बदलने से ही कोई सुबह नई कैसे हो सकती है जबकि सब कुछ वैसा ही हो ।
"तुम्हारा सोचना अपनी तरह से बिल्कुल सही है "----सोना ने किट्टू को प्यार से समझाया --"केवल कैलेण्डर से नई सुबह नही हो सकती क्योंकि जितने कैलेण्डर उतने ही नए साल । कोई पहली जनवरी को नये साल का आरम्भ बताता है कोई बाईस मार्च को ,कोई गुडी पडवा को तो कोई मोहर्रम की पहली तारीख को ....। दरअसल वह नयापन अखबार कैलेण्डर मे नही हमारे अपने मन में है ।"
किट्टू यह सुनकर और भी उलझ गया । 'नयापन ? विचारों में ? कैसे ?..।
सोना समझाती रही ---"हाँ मेरे बच्चे ,नयापन हमारे अपने विचारों से आता है । मान लो कि पूरे साल कोई त्यौहार न आए । कोई होली, दिवाली ,दशहरा ,ईद ,क्रिसमस आदि त्यौहार न मनाए जाएं तो पूरा साल कितना लम्बा और उबाऊ लगेगा । न आनन्द होगा न उल्लास । त्यौहार हमें खुशी ही नही उम्मीदें व हौसले भी देते हैं । नई सुबह को भी तुम नए एहसास का नाम दे सकते हो । नए विचारों व नए संकल्पों का नाम । नए साल के बहाने हम मन में उल्लास उमंग और ताजगी लाते हैं । उल्लास के साथ बिताए कुछ पल हमें नई ऊर्जा देते हैं । मेरे विचार से तो नई सुबह का यही मतलब है ।"
"फिर तो माँ "....किट्टू माँ की बात को और ज्यादा समझने के लिये थोडा रुका फिर बोला--" हम हर सुबह को भी एक नई सुबह मान कर एक खुशहाल दिन की शुरुआत कर वसकते हैं ।" 
"क्यों नही ?" तमाम चिडियाँ चहक उठीं---"यह तो और भी अच्छी बात होगी ।" और फिर वे किट्टू को नववर्ष के उत्सव में खींच ले गईँ ।
(जनवरी सन् 2000 चकमक में प्रकाशित )

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

जाडे आए भैया ।

सहमे -सिकुडे लगते हैं दिन ,
रातें बडी लडैया ...
जाडे आये भैया  ।

खीच-खीच सूरज की चादर,
रजनी पाँव पसारे ।
काना फूँसी करें उघारे ,
थर्..थर्..चन्दा -तारे ।
धूप बिचारी ...हारी ,
जल्दी करती  गोल बिछैया ...
जाडे आये भैया ।

लदे फदे कपडों में निकलें ,
चुन्नू-मुन्नू भाई,।
मम्मी के हाथों में नाचे ,
दिन भर ऊन-सलाई।
किट्-किट्..करते दाँत,
 कंठ से सी...सी दैया--दैया ।
जाडे आये भैया ।

ठण्डे पानी से है कट्टी,
साथी धूप सुनहली .
देर रात बैठे अलाव पर ,
करते यादें उजली ।
अनजाने से लगते हैं अब ,
नदिया ताल तलैया ।
जाडे आए भैया ।

अमरूदों ने मीठी-मीठी 
खुशबू है फैलाई।
गोभी गाजर मटर टमामर ने
बारात सजाई ।
गन्ने होगये रस की गागर ,
सरसों भूल-भुलैया ...
जाडे आये भैया ।

खेलो, खालो ,पढलो सो लो ,
अब तुम जी भर-भऱ के ।
कोई काम करो मत भैया ,
घबरा के डर-डर के ।
"सर्दी लग जायेगी"--कहते ,
हारे बेशक मैया ।
जाडे आये भैया ...।
(सन् 1994 के आसपास रचित व चकमक के सौ वे अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

एक रूप रुपहला तारा

Moon images: The moon's halo









एक रूप रुपहला तारा 

जैसे थाली भर पारा
या परी भुलक्कड भूली 
अपना सिंगार पिटारा 

एक झिलमिल सा आईना

टीका है जडा नगीना
नीले सरुवर में मानो
एक श्वेत कमल रसभीना

नभ की दीवार घडी है

बिन्दी जो रतन जडी है
खालो ,है बर्फ का गोला
खेलो वह बॅाल पडी है 

यह चाँदी का सिक्का है 

या ताश तुरुप इक्का है
कुरमुर पापड चावल का
या आलू का टिक्का है

क्या साइज है इडली का !

या प्याला भरा दही का 
मीठा लड्डू मावा का ?
या घेवर फीका-फीका ?

रबडी का भरा कटोरा 

बिखरा मिसरी का बोरा 
माँ धरती नीली-नीली 
पर मामा गोरा-गोरा ।
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चित्र-गूगल से साभार  

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

बापू तुम्हें सलाम ।


पोरबन्दर 
दो अक्टूबर,
करमचन्द और पुतली के घर
जन्मे थे अभिराम 
बापू तुम्हें सलाम ।

दुबला तन 
पर ताकतवर मन ,
सत्य ,अहिंसामय था जीवन ।
सुख-साधन आराम,
लिखा सब आजादी के नाम ।
बापू तुम्हें सलाम ।

भारत हो या हो अफ्रीका ,
बहुत दुखा दिल बापू जी का ।
भारत -वासी जीते थे ,
बन कर मजदूर गुलाम ।
बापू तुम्हें सलाम ।

गोरे क्रूर कुटिल अभिमानी ,
याद करादी उनको नानी ।
सत्याग्रह के बल पर, 
उनको ,झटके दिये तमाम । 
बापू तुम्हें सलाम ।

नियमों के थे अविकल सच्चे ।
पर अन्तर के कोमल कच्चे ।
दुःखी, दलित ,निबलों विकलों की,
सेवा की अविराम ।
बापू तुम्हें सलाम ।

करुणा का लहराता सागर ,
पूँजी थी बस लकुटी चादर ।
सादा जीवन ऊँचा चिन्तन ,
था आराम हराम ।
बापू तुम्हें सलाम ।

अस्त्र-शस्त्र निर्बल का सम्बल।
मन की शक्ति अपरिमित अविचल ।
पाकर ऐसी शक्ति बनें ,
हम भी अजेय अभिराम ।
बापू तुम्हें सलाम । 

भारत माँ के 'लाल 'बहादुर
उनका भी दिन दो अक्टूबर 
सूझ-बूझ नैतिक बल से  
जीते सारे संग्राम 
उनको मेरा सलाम । 


मंगलवार, 3 सितंबर 2013

मिट्टी की बात

एक था नन्हा पौधा गुलू । बहुत ही कोमल ,प्यारा और खूबसूरत । उसके हरे-भरे पत्ते बडे उल्लासमय लगते थे मानो आकाश से जान-पहचान करना चाहते हों ।
सब उसे प्यार करते थे । सूरज की पहली किरण बगिया में आकर सबसे पहले उसी का 'गुडमार्निंग' (सुप्रभात )कहती थी । हवा उसे हल्की सी थपकियाँ देकर सुलाती और कोयल बुलबुल मीठी लोरियाँ सुनातीं । हरी घास उसे नई-पुरानी कहानियाँ सुनाती थी तो बडे-बडे पेड उसे अक्सर प्यार से छेडते---"अरे गुलू मास्टर जरा जल्दी बढो न । देखो तो तुमसे बात करते हुए हमें कितना झुकना पडता है ?"
"देखा छोटा होने का लाभ ?"---गुलू चहक उठता---"मैं सबसे सिर उठा कर बात कर सकता हूँ । है न । इसलिये बडा होने में मेरी कोई दिलचस्पी नही है ।"
यह सुन कर सब हँस पडते थे । बगीचे की रौनक बढ जाती थी । इतनी खूबसूरत दुनिया, इतना प्यार पाकर गुलू को लगने लगा जैसे उसके पंख उग आए हों । 
तभी एक दिन दो लडके बगीचे में आए । उनकी नजर जैसे ही उस नन्हे पौधे पर पडी तो उसे अपने घर लगाने के लिये उखाड कर ले गए । और उसे एक क्यारी में रोप दिया । खूब पानी भी डाल दिया पर नन्हे पौधा उदास होगया । उसे यह नई जगह बिल्कुल अच्छी नही लगी । सब कुछ अनजाना और पराया सा लगा । उसे दुख हुआ कि उसे उसके घर से दूर कर दिया जहाँ वह पैदा हुआ । साथ ही गुस्सा भी बहुत आया । आखिर उसकी मर्जी जाने बिना लडकों को ऐसा करने की अनुमति दी किसने । यह तो मनमानी और दूसरों की आजादी छीनने की घटिया कोशिश । गुलू इसे क्यों  बर्दाश्त करे ? अपने साथ हुए अन्याय का विरोध करने का अधिकार सबको है । 
बस यही सब सोचा और गुलू उदास होगया । खाना-पानी लेना बन्द कर दिया । सुन्दर पत्ते मुरझा कर लटक गए । दो कोंपलें भी ,जो अभी पलकें खोल कर दुनिया देखने वालीं थीं सहम कर वहीं ठहर गई । अब कोई छोटी-मोटी बात होती तो कुछ नही था पर यह थी सबके चहेते नन्हे गुलू की उदासी व नाराजी वाली बात, सो चारों ओर बडा हडकम्प मचा । 
सबसे पहले हडबडाई--घबराई सी हवा आई । गुलू के लटके हुए पत्तों को सहला कर बोली---"क्या हुआ गुलू मास्टर । तुम्हारी हालत तो बडी खराब है । आखिर हुआ क्या है तुम्हें ?"
"क्या तुम्हें पता नही कि मुझे दो उड्डण्ड लडकों ने मेरी जगह से मुझे उखाड कर यहाँ लगा दिया है?"
"ओ...इतनी सी बात--हवा खिलखिलाई ---मैंने तो सुना कि तुम बडे बहादुर  हो । फिर क्या हुआ जो जरा सी बात पर मुँह लटका लिया । मुझे देखो न । दिनरात दुनिया का चक्कर लगाती हूँ । फूलों से भी गुजरती हूँ और सडी--गली चीजों के ढेर से भी । मैं तो दुखी नही होती । तुम्हें यों हिम्मत नही हारना चाहिये । जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ और खुश रहो । बी हैप्पी । अच्छा चलती हूँ । मुझे तितलियों व मधुमक्खियों के फूलों का सन्देश देने जाना है ..।"
"मुझे देखो-"..--नन्हा पौधा हवा का वाक्य दोहराते हुए कहने लगा --"-जाने कहाँ--कहाँ आवारा जैसी फिरती रहती है । किसी की चिन्ता क्या करेगी । ..अरे खुशी क्या कोई बिजली का स्विच है कि दबाओ और फक् से उजाला हो जाए ।" 
"किस उजाले की बात कर रहे हो नन्हे बाबू ?"
किरण अपने रुपहले बालों को लहराती हुई आई । उसका चेहरा दिपदिपा रहा था । किसी महारानी की तरह । उसी रौब से बोली--"हमने सुना है कि आप उदास हैं । भई ये उदासी ,ये मायूसी हमें जरा भी पसन्द नही है । आप जानते हैं कि कमजोरों को दुनिया दबाती है । हमारी तरह मजबूत और ताकतवर बनो। हम एक दिन भी न दिखें या जरा नाराजी दिखादें तो हलचल मच जाती है । इसलिये  जिन्दादिल और बहादुर बनो ।खैर.., बताइयें कि हम आपके क्या काम आ सकते हैं ?"
"फिलहाल आप हमें अकेला छोड दीजिये प्लीज..।-"-गुलू ने किरण की  बातों से  उकता कर कहा ।
"जैसी आपकी इच्छा ।"---किरण लापरवाही से बोली--- "हम चलते हैं । जब जरूरी लगे बुलवा लेना । हम आपके के लिये खाना तैयार करवा देंगे ।"
"खाना तो वो खाए जिसे जीना हो --।" गुलू ने मन ही मन कहा । किरण की बातों से उसके पत्ते ज्यादा लटक गए थे । इससे तो अच्छी तो पानी की समझायश थी । उसकी बातों में कम से कम ठंडक तो थी ।  बातों में हमदर्दी  थी । बडे अपनेपन से  कहा---"अपने लिये न सही मेरे लिये ही कुछ खा लो बच्चे । ऐसे कैसे काम चलेगा ?"
लेकिन पानी की बातें  सुनकर भी गुलू को नही लगा कि यह नई जगह जीने लायक और खुश रहने लायक है ।
पास ही बरगद की डाली पर बैठी चिडियाँ कह रहीं थीं--"बेचारा गुलू ,ऐसे तो सचमुच ही मर जाएगा ।"
गुलू को भी यकीन होगया कि उसके सामने एक ही रास्ता है---मर जाना ।
यह सब देख कर मिट्टी को बडी चिन्ता हुई । उसके सामने ही एक प्यारा पौधा सूख जाए यह तो अफसोस की बात थी । उसने धीरे से पूछा---"क्या तुमने सचमुच मरने का फैसला कर लिया है गुलू ?"
"क्या तुम्हें कोई शक है ?"--- गुलू ने सवाल के जबाब में सवाल पूछा ।
"नही..नही शक तो बिल्कुल नही । पर क्या केवल इसी बात पर कि तुम्हें नई जगह लाया गया है ।
यह छोटी बात है कि कोई किसी को अपने तरीके से जीने पर मजबूर करे । क्या तुम इसे सहन कर सकती हो ?" 
"हाँ "...मिट्टी ने गहरी साँस ली । 
"हाँ यह सहन करने वाली बात होनी भी नही चाहिये ।पर किसी की ज्यादती से घबरा कर जिन्दगी को खतरे में डालना तो ठीक नही है न ।"
"मुझे कोई उपदेश नही सुनना । जाओ यहाँ से अपने काम करो । मुझे मेरे हाल पर छोडदो बस...।"
"हाय ,गुलू तुम तो बिगड रहे हो । मेरा उद्देश्य वह नही  है । मैं तो कुछ और ही बताने वाली थी ।"   
"क्या बताने वालीं थीं ? यही न कि खुश रहो । मजबूत बनो । तभी तुम बहुत से दोस्त बना सकोगे । और तभी यह दुनिया ज्यादा सुन्दर लगेगी ..। कह डालो, कह डालो ..।"
"ओफ्..ओ...मैं वह सब नही कहने वाली । मैं तो यह बताने आई हूँ कि कुछ ही दिनों में ऋतुरानी आने वाली है । हर ऋतु में वह एक बार जरूर आती है ।" 
"तो मैं क्या करूँ ?"--गुलू ने रुखाई से मिट्टी की बात काट दी ।
"अरे बाबा ,पूरी बात तो सुनो । वह खाली नही आती । साथ में रंग-बिरंगे फूलों का टोकरा भी लाती है "
"तो मुझे उससे क्या !"
"हाँ यही तो जानने वाली बात है ।"-- मिट्टी ने तसल्ली के साथ कहा---"दरअसल वह पेड--पौधों को फूल बाँटने आती है । ढेर सारे रंग -बिरंगे फूल--लाल ,पीले, नीले, सफेद ,गुलाबी, बैंगनी जोगिया....। सब उससे फूल माँगने तैयार रहते हैं । हाँ बिना माँगे वह किसी को फूल नही देती ।"
"फिर ?"---गुलू को यह जानकारी कुछ दिलचस्प लगी ।
"फिर ?..नही समझे ?" मिट्टी ने अपनेपन से कहा --"सुनो मेरा विचार था कि तुम भी अपने लिये ऋतुरानी से फूल माँग लेते । मेरी समझ में तुम पर गुलाबी फूल अच्छे लगेंगे । वही छोटी रेशमी पंखुडियों वाले..।"
फूलों का नाम सुन कर नन्हे पौधे के मन में एक लहर सी उठी । उसकी आँखों में गेंदा , गुलाब सेवन्ती और मोगरा के पौधे झूम उठे जो किस तरह खूबसूरत फूलों से लद जाते हैं । भौंरे गीत गाते हैं । मधुमक्खियाँ नाचतीं हैं । तितलियाँ उनके कानों में जाने कितनी गपशप करतीं कि फूल खिलखिलाते हुए से लगते । पौधे की जिन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन होते हैं वे ।
"ओह ,..लेकिन मैं फूल कैसे माँग सकता हूँ । मेरी तो हालत ही खराब है ।"--नन्हे पौधे को अपनी भूल का अहसास हुआ ।
"बस यही तो मैं तुम्हें समझाने वाली हूँ । मिट्टी ने प्यार से समझाया "---ऋतुरानी हमेशा स्वस्थ व प्रसन्न पौधों को ही फूल देती है । तुम चाहो तो अब भी बात बन सकती है । अभी बिगडा ही क्या है । "
"पर कैसे ?" गुलू की आवाज में बेचैनी थी ।
"बडी आसानी से" --मिट्टी उल्लसित होकर बोली--
"दुख और गुस्सा छोडदो । और यकीनन तुम्हारे साथ ऐसा कुछ नही हुआ कि तुम जीने का ख्याल ही छोडदो । सच तो यह है कि ये लडके सुन्दर फूलों के लालच में ही तुम्हें यहाँ लाए हैं । इसलिये इनके स्नेह को स्वीकार करो । इस नई जगह पर तुम्हारा स्वागत है । जिस दिन तुम्हें फूल मिल जाएं मुझे जरूर बताना । मेरे लिये वह बेहद खुशी का दिन होगा ।"
अगली सुबह सबने देखा नन्हा गुलू खुल कर मुस्करा रहा था । मुरझाए पत्ते ताजे और प्रसन्न लग रहे थे । सहमी सोई हुई सी दो कोंपलें भी आँखें खोलने लगीं थीं ।
(एकलव्य से प्रकाशित 'मिट्टी की बात' कहानी संग्रह से ,जिसकी छह कहानियों में तीन मेरी हैं )

सोमवार, 19 अगस्त 2013

धरती गमक उठी है ।


पडी फुहारें वन आँगन में ,

भीगी धरती गमक उठी है ।

धूमिल काले कलश उठाये,

मेघराज पानी भर लाये ।
उमड--गरज कर खाली कर गये,
बीजुरिया ,लो चमक उठी है ।

आ, मयूर मतवाला नाचे ,

कोयल मीठी कविता बाँचे ।
भर-भर उमडी उफनी नदियाँ ,
इतराती सी झमक उठी हैं ।

बिछा मखमली हरा गलीचा ,

झूलों से है सजा बगीचा ।
मधुर मल्हार हवा गाती है,
हरियाली भी दमक उठी है ।

कीट-पतंगों का मेला सा ,

बीर-बहूटी का रेला सा  ।
मेंढक , झीगुर से झन्नाती ,
भीगी रातें बमक उठी हैं ।

सीले कपडे बिस्तर दादी ,

सेवईं पापड धूप दिखाती ।
जब लगता आकाश खुला है ,
सुस्त दुपहरी तमक उठी है ।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

हमारा तिरंगा

हमें जान से भी है प्यारा तिरंगा,
अनौखा निराला है न्यारा तिरंगा ।

ये लहराए, पहली किरण मुस्कराए

सिन्दूरी प्रभा से गगन जगमगाए।
उदय होते रवि का नजारा तिरंगा,
अनौखा निराला.......

बीच का श्वेत-रंग है हिमालय का गौरव,

गूँजता है अमन के कपोतों का कलरव।
विमल सादगी का सितारा तिरंगा,
अनौखा निराला.........

हरित बाग-वन की छटा लहलहाती,

कि नीचे हरी  क्यारियाँ मुस्कराती,
हरियाली खुशहाली का नारा तिरंगा।
अनौखा निराला.........

चक्र है बीच में जैसे आँखों की पुतली।

अखिल विश्व को दे रहा द्रष्टि उजली।
डूबती आस्थाओं का किनारा तिरंगा।।
अनौखा निराला.......

आन है मान है अपना सम्मान है।

गीत बलिदान का देश की शान है ।
एक अभिमान अपना सहारा तिरंगा।
अनौखा निराला.......

कभी शान हम इसकी गिरने न देंगे।

कभी शीश हम इसका  झुकने न देंगे।
ऊँचा है और रहेगा हमारा तिरंगा ।
हमें जान से भी है प्यारा तिरंगा ।

सभी पाठकों को स्वाधीनता-दिवस मुबारक 

सोमवार, 15 जुलाई 2013

वर्षा का स्कूल

आसमान में शुरु होगया,
वर्षा का स्कूल।
सूरज की जो बजी 'बेल,'
सुन दौडे रेलमपेल।
नन्हे -नन्हे बादल ,
लादे भारी बस्ता ,
और पानी की 'बाटल '।

याद दिलाते मम्मी-पापा ,

नदी समन्दर ..यही निरन्तर,
कुछ गये तो नहीं भूल ??
   आसमान में शुरु हो गया ,
   वर्षा का स्कूल --।

कक्षाओं में ,

मचा शोर है ।
बडा जोर है --
"दीदी--दीदी..!..दीदी-दीदी.!!
कितने मुश्किल,
गिनती टेबल !
आज नहीं यह ,
"ए फार एपल  ।"
हम तो आज पढेंगे केवल,
मीठे--मीठे गीत ।"
मुस्काई सुन दीदी हवा  ---
"चलो तुम्हारी जीत ।"

पढकर खुशी-खुशी घर लौटे ,

नन्हे बादल ।
धूम मचाते और चिल्लाते ,
कविता बौछारों की गाते ।
पर्वत मैदानों ने खोले ,
हरियाली के छाते ।
"नहीं गई क्यों मैं भी पढने ?
यों शरमाई धूल ...
आसमान में शुरु होगया ,
वर्षा का स्कूल
( चकमक जुलाई 2000 में प्रकाशित)

बुधवार, 12 जून 2013

पेड किसका है ?

यह कहानी वैसे तो चकमक, मिट्टी की बात ( कहानी संग्रह एकलव्य) तथा बाल भास्कर में आ चुकी है लेकिन आपके पढे बिना बात अधूरी है । इसलिये इसे यहाँ भी दे रही हूँ । आप पढें और अपनी राय भी जरूर दें ।
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एक शाम जब सारा आसमान लौटते हुए पंछियों के कोलाहल से गूँज रहा था और सूरज अपनी किरणों के जाल को पहाडों व पेडों की फुनगियों से समेट कर क्षितिज के पार जाने की तैयारी कर रहा था ,तब नीम के पेड पर बैठे पक्षी व गिलहरियाँ एक खास मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे । मुद्दा था --'एक अकडबाज बुलबुल का ,जो आँगन में खडे नीबू के पेड पर अधिकार के साथ घोंसला बना कर रह रही थी ।'
"कितना घमण्ड है उस जरा सी चिडिया को । सीधे मुँह बोलना ही नही चाहती किसी से ।"--नन्ही गौरैया ने मारे गुस्से के एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकते हुए कहा ।
"तुम बात करने का रोना रो रही हो नन्ही ---गुलबी मैना अपनी पीली चोंच साफ करके बोली---"वह तो हमारी तरफ देखना तक पसन्द नही करती । हमें देखते ही कैसी बुरी सूरत बना लेती है ! मारे गुस्से के सिर के बाल खडे हो जाते हैं और मीठी आवाज भी एकदम कर्कश होजाती है ।"
"अरे ,तो फिर मुझसे पूछो कि मुझ पर क्या गुजरी ।"---- छुटकी गिलहरी ,जो पिछले पैरों पर बैठी दोनों हाथों में अमरूद थामे कुतर रही थी , आगे आकर बोली---"मैं तो उधर अमरूद तलाशने गई थी कि वह अचानक चीखती हुई मेरे पीछे आई । मैं तो घबरा कर डाली से नीचे ही गिर पडी । मेरे बदन में अभी भी दर्द है ।"
सब बढा--चढा कर अपनी व्यथा-कथा सुना रहे थे । कालू कौवा जो अब तक सबकी बातें ध्यान से सुन रहा था भारी आवाज में बोला-----"ये मीठा बोलने वाली चिडियाँ तो होतीं ही हैं स्वार्थी व धोखेबाज । कोयल को ही देखलो । सारी दुनिया उसकी मीठी आवाज के गीत गाती है ।पर यह कौन मानेगा कि वह चालाकी से अपने अण्डों की देखभाल हमसे करवाती है । हम तो उन्हें अपना समझ कर प्यार से सेते और पालते हैं पर बच्चे भी पूरे चालाक होते हैं । हम असलियत समझें इससे पहले ही वे उड जाते हैं । बुलबुल उनसे कैसे अलग हो सकती है ! मैं सबकी आलोचना से डरता हूँ वरना मजा चखाता उस बदतमीज बुलबुल को । उसे खदेडने में मुझे पल भर भी नही लगता ।"
"लेकिन अब क्या किया जासकता है ? अब तो उसने घोंसला बना लिया है । शायद बच्चे भी हैं ।"---पंडुकी बोली । उसे लडाई--झगडे की बात से जरा डर लगता है । 
"तो क्या हुआ !"--कालू सख्ती से बोला ---"जब वह हमारे पेड पर रह कर हमें आँखें दिखा सकती है तो हम उसे खदेड नही सकते क्या ?"
"कालू दादा ठीक कह रहे हैं "--गुलबी ने समर्थन किया ---"बुलबुल तो बागों में रहने वाली चिडिया है । हमारे घरेलू पेडों पर भला उसका क्या हक है ! फिर रहे तो रहे ,पर अकड भी दिखाए !"
"अजी रहे भी क्यों ?"---छुटकी ने जोर देकर कहा । वह चोट व अपमान के लिये बुलबुल को माफ नही कर पा रही थी ।
"ठीक है । बुलबुल को सबक सिखाना जरूरी है ।" 
इस तरह निर्विरोध ही यह प्रस्ताव पास होगया ।
 जिस समय यह प्रस्ताव पास हो रहा था ,बुलबुल अपने घोंसले में बच्चों को दाना चुगा रही थी । वह बारी-बारी से तीनों की चोंच में चुग्गा डाल रही थी पर उन्हें सब्र कहाँ था । वे गर्दन ताने ,चोंच फाडे बार-बार चुग्गा माँगे जारहे थे । उनमें एक बच्चा ज्यादा चुलबुला और भुक्खड था । हर बार चोंच बढा कर माँ से दाना छीन लेता था । इसलिये वह दोनों की तुलना में कुछ बडा व सेहतमन्द दिखने लगा था ।
उसे घोंसला भी छोटा और उबाऊ लगने लगा था इसलिये वह घोंसले से बाहर निकल कर उडने के मनसूबे भी बनाने लगा था । दूसरे दोनों बच्चे भी कमजोर होने के बावजूद भाई की नकल करते थे । उनके पंख अभी उग ही रहे थे पर उन्हें ही फडफडाकर उडने का शौक पूरा करने लगे थे । और माँ के लाख समझाने पर भी वे कुछ न कुछ बोलते रहते थे---"माँ आसमान कितना बडा है ? माँ बाहर दुनिया खूब बडी और खूबसूरत होगी न ! माँ हमारे पंख कब बडे होंगे ? हमें जल्दी उडना है । माँ हमें खुद ही कब चुग्गा तलाश करने दोगी ..यहीं बैठे-बैठे खाते ऊब गए हैं माँ...!"
"अभी कुछ दिन और तसल्ली करलो मेरे नन्हे -मुन्नो !" बुलबुल अपने बच्चों की बातें सुन कर फूली नही समाती थी । बच्चों से बोलते समय तो उसकी आवाज बेहद से बेहद मीठी हो जाती थी । 
"तुम जल्दी ही उडोगे भी और दुनिया भी देखोगे मेरे बच्चो ! पर अभी कुछ दिन मेरे साथ भी तो गुजार लो मेरे लाडलो !"
बच्चों की बातें सुन कर बुलबुल निहाल तो होती थी पर साथ ही कई आशंकाओं से भी घिर जाती थी । पता नही उसके शिशुओं पर कब कौन सी मुसीबत आ जाए । पन्द्रह दिनों तक तो किसी को हवा तक नही लगी थी कि एक छोटे से घोंसले में एक नही तीन--तीन अण्डे सेये जा रहे हैं पर जब अण्डों को फोड कर बच्चे निकले तो बुलबुल की मुसीबत होगई । अब क्या वे अण्डे थे जिन्हें बुलबुल छाती के नीचे दबाए रखती । आँखें भी नही खुलीं थीं कि नटखट बच्चों की चीं चीं...चूँचूँ शुरु होगई थी । और फिर हुआ वही जिसका बुलबुल को डर था । कितनी ही चिडियाँ पेड के आसपास चक्कर काटने लगीं । और किसी न किसी बहाने बात करने की कोशिश करने लगीं --"कि अरे बुलबुल जी ! आजकल बडा शोर मचा रहता है । क्या तुम्हारे यहाँ मेहमान आए हुए हैं ?"...कि तुम तो फूलों में रहने वाली हो फिर यह हमारा काँटेदार पेड कैसे भा गया बुलबुल रानी ?" कि बुलबुल जी सुना है कि तु्म्हारी आवाज बहुत मीठी है । कोई गीत सुनाओ न !" 
जब ये बातें होती तब कालू भी किसी न किसी बहाने वहीं काँव--काँव करता हुआ मँडराता रहता था । बुलबुल  खतरे के बारे में सोचती और किसी तरह उसे टालने के लिये विनम्रता के साथ कहती----"मैं जरा व्यस्त हूँ । फिर कभी आना ।"
लेकिन उस समय न चाहते हुए भी उसकी आवाज रूखी व कठोर हो जाती थी ।
"इतना घमण्ड....!"  क्या हम सबको नही सोचना चाहिये कि बुलबुल का यह बर्ताव न केवल बदतमीजी  भरा है ,बल्कि यह हम सबका अपमान भी है ।
और इसके बाद आनन--फानन में बुलबुल को भगाने की योजना बन गई । इसकी जिम्मेदारी कालू को सौंपी गई । भूखा क्या चाहे ,भरपेट भोजन । कालू तो न जाने कब से इसी मौके के इन्तजार में था । बुलबुल ने कई बार उसे भी बुरी तरह खदेड दिया था । लेकिन वह बुलबुल का कुछ भी नही बिगाड पाया था । यह मौका पाकर उसका मन नए बछडे की तरह कुलाँचें भरने लगा । उत्साह को दबाते हुए बोला---"आपने मुझे इसके लायक समझा इसके लिये शुक्रिया । मैं इसे निभाने की पूरी कोशिश करूँगा और क्या कहूँ ।"  
दूसरे दिन जब सूरज की किरणें पत्तों पर थिरकने लगीं , पक्षी स्कूल से छूटे बच्चों की तरह चहकते हुए भोजन की तलाश में निकल गए और पेडों पर गिलहरियों की किट्..किट्..कुट्..कुट्..शुरु होगई मानो छैनी--हथौडा लेकर कोई पत्थर तराश रहा हो । तब बुलबुल ने चुग्गा लेने जाने से पहले अपने बच्चों को रोज की तरह ही नसीहतें दीं कि घोंसले से बाहर मत झाँकना । चहचहाने और उडने की इच्छा को फिलहाल दबा कर ही रखना । कोई खतरा हो तब जरूर मुझे जोर से पुकार लेना । मैं आसपास ही कुछ कीडे चुन कर आ जाऊँगी । और उड गई । 
कालू ने मौका देखा और चुपके से बुलबुल के घोंसले तक पहुँच गया । हालाँकि घनी पत्तियों व काँटेदार टहनियों में उसे खासी दिक्कत हुई लेकिन घोंसले में जो नरम-गरम बच्चे देखे तो मुँह में पानी आगया और मुँह से बरबस ही निकल पडा---"वाह क्या बात है !"
"कौन है ?" --तीनों बच्चे चौकन्ने होगए । कालू को लगा जैसे उसकी चोरी पकडी गई । वह दो कदम पीछे हट गया ।
"अरे ,डर लगा क्या ?"---बडा बच्चा गर्दन उठा कर सीना फुलाने की कोशिश करते हुए बोला । 
"यहाँ डर की कोई बात नही है ।"
"अभी हमारी माँ भी नही है । तुम हमसे दोस्ती करोगे ?"--बीच वाला बच्चा आगे आकर बोला । 
"दोस्ती !!"--कालू चौंका ।
"हाँ , दरअसल हमें एक दोस्त की सख्त जरूरत है जो बहादुर और ताकतवर हो । हमें आसमान की सैर कराए । हमसे खूब सारी बातें करे । और..."----बडे बच्चे ने अपनी बात पूरी भी न की थी कि छोटा बच्चा बीच में से निकल कर आगे आगया और बोला--
"क्या है कि हमारी माँ हमें न तो जोर से बोलने देती है न ही घोंसले से बाहर निकलने देती है ।लेकिन हम खूब गाना चाहते हैं । उड कर दूर तक सैर करना चाहते हैं । क्या आप हमारी मदद करेंगे ?"  
कालू हैरान । बच्चे निर्भीकता से बोले जा रहे थे । उन्हें न किसी खतरे का अहसास था न मुसीबत की चिन्ता ।
"ऐसे में इन पर वार करना तो बेहद शर्मनाक होगा "--कालू ने सोचा । बच्चों का बोलना जारी था---"हमारी माँ कहती है कि यहाँ हमारे कई दुश्मन हैं जो हमें नुक्सान पहुँचा सकते हैं । लेकिन हमें यकीन नही होता । और आप तो हमें बडे बहादुर लगते हैं । माँ कहती है कि जो बहादुर होते हैं वे बच्चों को कोई खतरा नही पहुँचाते । है न ?"
"हाँ...हाँ ..।" कालू की जुबान सूखने लगी । या बोलने के लिये उसे शब्द नही मिल रहे थे ।
"कालू ! तुम वहाँ क्या कर रहे हो ? हम जानने के लिये बेचैन हैं । जल्दी अपना काम करो और वापस आओ ।"
नीम के पेड पर बैठे पक्षी व गिलहरियाँ कालू को लगातार पुकार रहे थे पर कालू बुलबुल के तीनों बच्चों की बातों में खोया था जो बडे प्यार से उसे दोस्त बनाने को आतुर थे । उस समय कालू को अपना इरादा काफी घटिया लगा और काफी थकी-थकी सी आवाज में बोला ---"अच्छा चलता हूँ । फिर मिलेंगे ।"
"ठीक है लेकिन कल जरूर आना । हम इन्तजार करेंगे ।"
तीनों बच्चों की नन्ही आवाजें कालू का पीछा करती रहीं । वह जैसे जान छुडा कर मुश्किल से नीम के पेड तक आ पाया ।
"तुम कामयाब नही हुए ।"--नन्ही गौरैया ने शरारत से कहा ---"तुम्हारी सूरत बता रही है ।"
"कालू दादा तुम तो ऐसे बैठे हो जैसे बुलबुल ने तुम्हें पीट-पीट कर भगा दिया हो ।"---गुलबी मैना बोली । ऐसे में छुटकी भला पीछे कैसे रहती । चुटकी लेते हुए बोली---"लगता है तुम बुलबुल से हार गए ।"
"बुलबुल से नही बेवकूफ गिलहरी ...उसके नन्हे बच्चों से ,जिनके अभी ठीक से पंख भी नही उगे हैं ।
यह नही हो सकता "--सबने अविश्वास से कहा ।
"यही हुआ है "--कालू बहुत धीमे व कोमल स्वर में बोला---"मैंने तो तय किया है कि जब तक घोंसले में बच्चे हैं तब तक यह पेड उन्ही का है । आप जो भी सोचें ।"
"हमारे पास भी इससे अलग सोचने कुछ नही है-"--सब एक साथ बोले और पुलकित होकर घोंसले से आती नन्ही आवाजों को सुनने लगे ।

बुधवार, 5 जून 2013

नदिया कहती है ।

नदिया बहती है ।
सबसे कहती है ।
गति ही तो जीवन है ।
गति ही अन्वेषण है ।
तुम चलते रहो ,डरो ना
मन में सन्देह भरो ना  
जो पानी सा बहता है
जो पानी सा रहता है ।
फिर कौन उसे रोकेगा ।
फिर कौन उसे टोकेगा ।
जो खुद ही मुड जाता है,
तो कौन उसे मोडेगा ।
चट्टानों में भी बहकर ,
हर मुश्किल को भी सह कर,
खुद राह बना लेता जो 
उसका ही अभिनन्दन है ।
हाँ गति ही तो जीवन है ।
हाँ गति ही अन्वेषण है ।

नदिया बहती है ।
यों सबसे कहती है ।
तुम सभी ध्यान से सुनलो 
मेरी बातों को गुनलो ।
जल-धारा ही जीवन है ।
 धरती माता का धन है ।
इससे ही हरियाली है।
इससे ही  खुशहाली है।
यह प्राणों की रेखा है ।
यह वैभव अनदेखा है ।
यों करो न इसको दूषित ।
धरती इससे ही भूषित ।
यों मैला करो न जल को ।
क्यों बहा रहे  हो मल को ।
मेरी पीडा को बिसरा
फेंको ना कूडा-कचरा
होता गन्दा तन मन है 
यों नदी करे क्रन्दन है ।
यों नदी करे क्रन्दन है ।

गुरुवार, 30 मई 2013

सूरज सर

सूरज सर के गरम मिज़ाज
जब देखो रहते नाराज 
 क्यों रहते हैं तेवर तीखे ?
क्यों इतने रूखे अन्दाज ?

देते कितने कठिन सवाल

चलते अन्धड और बवाल
बोलें तो--लू सी चलती है 
डरे-डरे से सब बेहाल
किरणों की ये छडी ??...बाप....रे
होगी बहुत पिटाई आज ।
सूरज सर के गरम मिज़ाज

मैं स्कूल नही जाऊँगी -----

झुरमुट से झाँके गौरैया 
गमले में जा छुपी गिलहरी
बिल में छुप गई चिंकी चुहिया ।
अमराई में चुप्पी साधे ,
मोर पपीहा बुलबुल बाज .
सूरज सर के गरम मिजाज .

बेर--बबूल खडे मुर्गा से 

पीपल को आगया पसीना ।
सिट्टी-पिट्टी गुम गुलाब की
गेंदा भी तो गुमसुम है ना ।
रटा सबक भूली सेवन्ती 
बारहमासी भी बेताज ।
सूरज सर के गरम मिज़ाज ।

नदी--ताल की गिनती गडबड

पोखर के हैं हाल खराब
माथापच्ची करी रात भर 
फिर भी बैठा नही हिसाब।
झरना भैया,की भी देखो
बन्द होगई है आवाज ।
सूरज सर के गरम मिज़ाज ।

सोमवार, 20 मई 2013

वह कौन था ?


एक संस्मरण

यह बात  उस समय की है जब मैंने दूसरी कक्षा ही पास की थी । आगे पढ़ाने के लिये काकाजी मुझे अपने साथ बड़बारी ले गए थे जहाँ दो साल पहले ही उनका तबादला हुआ था ।
बड़बारी मध्यप्रदेश में भिण्ड -ग्वालियर के बीच लेकिन मुरैना जिले का  एक पहाड़ी गाँव  है .उन दिनों  वहाँ तक सड़क नहीं थी . ट्रेन से रिठौरा उतरकर पैदल जाते थे . बस से मालनपुर उतरकर जाना होता था . पानी के लिये नीचे तलहटी में एकमात्र  कुआँ था ,जहाँ रात में जाने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था क्योंकि  सूरज की पलकें बन्द होते ही  वहाँ डाकुओं जिन्हें वहाँ बागी कहा जाता था , का राज होता था . पथरीली ज़मीन पर वहाँ पेड़ पौधों के नाम पर केवल एक नीम का पेड़ और दो तीन सिरस (शिरीष) केपेड़ थे . बेतरतीबी से जहाँ तहाँ बैठी भेड़-बकरियों जैसे मकान बने थे  . गाँव के बाहर स्कूल था  . जिसे पिताजी गेंदा ,गुलदाऊदी जैसे पौधों से हरा भरा बनाने की कोशिश करते रहते थे  .
सोचिये कि पाँच--छह साल की बच्ची को अपनी माँ से दूर जाना पड़े , वह भी पढ़ने के लिये और उस पर भी वहाँ बहुत सारे डर हों तो.. ,कैसा लगेगा ? मुझे ठीक वैसा ही लगता था । यानी कि बहुत ही बुरा । एक तो मुझे माँ की याद आती रहती थी ,ऊपर से पिताजी से लाड़ प्यार की जगह गिनती पहाड़ों और छोटे-छोटे जोड़ बाकी गुणा भागों के पीछे बड़ी-बड़ी डाँटें खाने मिलतीं  रहती थीं । मेरी भूख गायब होजाती थी  ठीक वैसे ही जैसे  स्कूल में टीका लगाने वाले डाक्टर के आने की बात सुन कर हम लोग स्कूल से गायब होजाते थे । अकेले में मौका पाकर मैं खूब रो लेती थी । काकाजी को रोना जरा भी पसन्द नही था । कहते थे कि रोने वाले बच्चे हर जगह फेल होते हैं । वे कभी आगे नही बढ़ सकते । शायद कभी कभी मेरी लाल आँखों और फ्राक में जगह जगह गीले धब्बों को देख कर ही वे ऐसा कहते हों । लेकिन रोने से भी ज्यादा उन्हें नापसन्द था डरना । 
काकाजी तो बेशक बहादुर थे । वे रात के घुप अँधेरे में नदी के घाट पर ,जहाँ एक मसान रहता था ,अकेले ही जा सकते थे । उफनती नदी को पार कर सकते थे जबकि उसमें कई तरह के साँप मछलियाँ और मगर भी होते थे । वे न भूतों से डरते थे न चुड़ैलों से और ना ही राक्षसों से । बल्कि मौका पड़ने पर उन्हें मजा भी चखा सकते थे लेकिन पता नही क्यों काकाजी की बहादुरी भी मुझे डरने से नही रोक पाती थी । काकाजी को क्या मालूम कि मेरे सामने कितने-कितने डर थे जो हर वक्त मुझे दूसरी कई खुशियों तक जाने ही नही देते थे ।
वैसे तो वहाँ सबसे बड़ा डर डाकुओं का था लेकिन पहले ही बतादूँ कि  मेरे मन में डाकुओं का डर केवल बन्दूक के कारण था  . बन्मैंदूक के कारण ही उस समय डाकू और पुलिस में मुझे कोई भेद नज़र नहीं आता था .अगर डाकू लोग बन्दूक नही रखते तो मैं डाकुओं से तो डरने वाली थी नही । लेकिन मेरे सामने दूसरे  अनेक डर थे जिनमें एक डर था सरपंच काका की बतखों का । 
बतखें मुझे बहुत अच्छी लगती थी  पर वे  जाने क्यों  एक बार अपनी लम्बी गर्दन को साँप की तरह लहराती हुई मेरे पीछे दौड़ पड़ी  थीं. तब से मुझे लगने लगा था कि बतखों के रूप में  जरूर कोई राक्षस है  .
दूसरा डर था सरपंच काका के खर्राटों से पैदा हुआ डर ।  बात यह थी कि  हमारे दिन के सारे कार्य तो  स्कूल में  ही सम्पन्न  होते थे  लेकिन सोने  के लिये  सरपंच कक्का की कचहरी में आना होना था  . यह काक्का का ही  निर्देश था .क्योंकि रात में बागियों का डर रहता है, इसलिये  शाम का धुँधलका उतरने से पहले काकाजी स्कूल को ताला लगा कर  सरपंच जी के घर आ जाते थे ।
हाँ, तो सरपंच कक्का के खर्राटे काफी बुलन्द हुआ करते थे । ऐसे कि मानो खुरदरी छत पर कोई लगातार चारपाई घसीट रहा हो । ऐसे में नींद को तो उड़ना ही था । किसी आहट पर चिड़िया तो उड़ ही जाती है कि नही ? पर नींद उड़ने पर बुरे व डरावने विचार ही क्यों आते हैं ,यह मुझे आज तक पता नही चला । उस समय हम अनायास ही एक डरावनी सी अँधेरी गुफा में चले जाते हैं । 
जब नींद उड़ जाती थी तब पुरन्दर और गन्धू  की बातें मेरे दिमाग पर हावी होजातीं थी जैसे हिरण के छोटे बच्चे को अकेला पाकर  लकड़बग्घा हावी होजाता है । पुरन्दर और गन्धर्व  पहले दिन से ही मेरे दोस्त बन गए थे । पुरन्दर ने स्कूल के पीछे एक पिशाच और चुड़ैल होने की जानकारी तभी दे दी थी । उसी से मैंने जाना कि चुड़ैल के पाँव पीछे की ओर होते हैं । बाल सुनहरे  होते हैं और आँखें लाल । नजर से ही खून पी लेतीं हैं किसी का । स्कूल के पीछे वाली खदान में रोज चुड़ैलों के घुँघरू बजते हैं । वे चुड़ैलें रात के अँधेरे में यहीं कहीं मेरे आसपास तो नही है..। इस कल्पना से घबराकर मैं काकाजी को देखती । उस समय चारपाई में धँसे हुए से काकाजी बिल्कुल बच्चे जैसे लगते थे । क्योंकि मुझे पता था कि डर की बात सुन कर वे तुरन्त एक कठोर 'मास्टरसाहब' बन जाने वाले हैं इसलिये मैं उन्हें जगाने का विचार छोड़ देती । जैसे ट्रैफिक में फँसने के डर से लोग अक्सर मुख्य सड़क छोड़ देते हैं ।
लेकिन तब इन सबसे भी बड़ा एक और डर था । वह डर था 'कमलापती 'का । यह बड़बारी में मेरे शुरु के दिनों की ही बात है ।
"यह कमलापती कौन है ?"--मैंने पूछा तो केशकली ने तुरन्त मेरा मुँह बन्द कर दिया । केशकली  मानू मौसी की बेहद दुबली--पतली और बहुत ही चतुर लगने वाली लड़की थी । वहाँ मेरी सबसे पहली सहेली भी ।
" ओ पागल ! इस तरह उसका नाम मत ले । कभी-कभी नाम सुन कर ही 'परगट 'होजाता है । और फिर मेंढ़क ,बिल्ली ,कबूतर कुछ भी बनाकर अपने झोला में धर ले जाता है ।"
"फिर क्या करता है ?"
"करता क्या है मार काटकर ,और तल-भूनकर कर खा जाता है । खास तौर पर लड़कियों को । मेरी बुआ झूठ थोड़ी न कहती है !"
मुझे याद आया कि सरपंच काकी भी एक दिन अपनी बेटी  रामरती से कह रही थीं कि तूने अगर रोना बन्द नही किया तो देख अभी बुलाती हूँ कमलापती को ...। उनकी बेटी ने तुरन्त झरने की तरह फूटती रुलाई को आश्चर्यजनक तरीके से होठों में ही समेट लिया था । हाल यह था कि कमलापति का नाम सुनते ही गलियों से बच्चे ऐसे गायब होजाते थे जैसे लू चलने से मच्छर  गायब होजाते हैं ।
मुझे यकीन होगया कि कमलापती एक राक्षस है..।  
"राक्षस..नही भयानक राक्षस कहो ।"---केशू बोली---"मेरी अम्मा ने देखा है उसे । ताड़ की तरह ऊँचा ,पहाड़ जैसा चौड़ा और कढ़ाई के तले जैसा काला राक्षस है। उसके नुकीले सींग ,बड़े-बड़े दाँत हैं . लत्ते सी लटकती लपलपाती जीभ  है और खून टपकाती सी आँखें । वैसा ही ,कहानी में राजकुमारी को चुरा ले जाने वाले राक्षस जैसा ।"
अब हाल यह था कि यह तस्वीर मेरे आजू--बाजू जब चाहे चलना शुरु होजाती थी । मुझे लगता कि मैं भी राजकुमारी हूँ और राक्षस कमलापति जाने कब कहाँ से आकर मुझे चिड़िया बनाकर ले जाएगा और पिंजरे में बन्द कर देगा । वे मेरे सबसे बुरे और डरावने दिन थे ।
एक दिन जब इतवार की छुट्टी थी और मैं कासिम दादा के घर से मुर्गियों के ढेर सारे चूजे देख कर स्कूल की तरफ लौट रही थी कि रास्ते में गन्धू मिला । उसने हाँफते-हाँफते एक भयानक खबर सुनाई---" जीजी बाई , जीजीबाई ,कमलापती स्कूल की तरफ गया है । मैंने बाबा को कहते सुना था कि कमलापती मास्टर साब के पास बैठा है ।"
उस समय मेरी दशा उस सपने जैसी होगई जिसमें हम किसी संकट से भागना चाहते हैं पर भाग नही सकते । मैं भागती भी कैसे  ? काकाजी अकेले जो थे स्कूल में । बेशक काकाजी बहादुर थे पर एक राक्षस से लड़ने के लिये ताकत भी तो चाहिये न । काकाजी को तो वह सूखे तिनके की तरह तोड़-मरोड़ कर फेंक देगा । अपने पिता की बेवशी और दुर्दशा की कल्पना  करके मैं बुरी तरह रोने लगी खूब हिलक हिलककर , जोर जोर से .."
संयोग से उसी समय काकाजी  बाहर आए और मुझे इस तरह रोती देख प्यार से पूछा --
"अरे घुर्रा !!" ( काकाजी बहुत प्यार से मुझे घुर्रा कह कर पुकारते थे) ---अपने पिता  को सलामत पाकर मैं खुशी के मारे उनसे लिपट कर रोने लगी ।
" अरे , अरे क्या हुआ बेटी ?" 
"आप  तो ठीक हैं ना  ,मैं बहुत डर गई थी ?"
"क्यों  डर गई , मैं तो अच्छा भला हूँ । आ जा अन्दर चलें ...।"
"नही ,"..---मैंने पाँव पीछे खींचे .
"क्यों  ?"
"वो अन्दर अभी बैठा है न ?"
"वो कौन?" 
"वो ...कम..ला..पती... "
यह सुनते ही काकाजी मुझे गोद में उठाकर अन्दर ले गए ।
"कमलापति ...लो इस लड़की को अपने साथ ले जाओ ।"
मैं डर के मारे संज्ञाहीन सी होगई थी । आँखें कस कर बन्द करलीं थीं मानो ऐसा करना मुझे संकट से बचा लेगा । 
मुझे याद आया कि काकाजी पटाखों से मेरा डर दूर करने के लिये अचानक मेरे बगल में पटाखा चला देते थे या मुझसे ही पटाखे चलवा लेते थे । अँधेरे का डर निकालने के लिये भी वे मुझे अँधेरे कमरे में अपना बटुआ लाने भेज देते थे लेकिन मेरी हिम्मत बढ़ाने के लिये मुझे एक राक्षस को ही सौंप देंगे ,ऐसी आशंका मुझे हरगिज नही  होनी थी पर होनाी क्या काकाजी ने तो मुझे उसके हाथों में ही सौंप दिया । तभी दो मजबूत हाथों ने मुझे सम्हाला । मैंने उसे हँसी के साथ कहते हुए सुना--"सच्ची भेज दो मास्टर साहब । गुड़िया का मन लग जाएगा । इतने ही बड़े हमारे मुन्नी पप्पू भी हैं । घर में खूब दूध-दही और मक्खन होता ही है । कोई कमी न होगी ।" 
बिल्कुल आदमी जैसी आवाज ।
मैंने चौंक कर आँखें खोलीं और बरबस ही मुँह से निकल पड़ा ---"अरे यह तो आदमी हैं! "
यह सुन कर काकाजी और कमलापति ने जोर का ठहाका लगाया । 
मैं जैसे एक अँधेरी गुफा से बाहर निकल आई थी । 
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मंगलवार, 7 मई 2013

क्यों लगती है प्यास ?


गर्मी रानी ,क्यों लगती है ,
तुमको इतनी प्यास ।
पी जाती हो गटक् गटागट, 
दिन भर कई गिलास ।

मटके रीते ,रीत चले हैं ,

कूप ,नदी और ताल ।
इन्हें रोज भरते--भरते ,
धरती नानी बेहाल ।

कभी चाहिये शरबत तुमको ,

कभी शकंजी ,लस्सी ।
आइसक्रीम तो , अरे बाप रे...,
पूरी..... सत्तर...अस्सी ।
एक न छोडी बोतल फ्रिज में,
कोल्ड-ड्रिन्क खल्लास ....
गर्मी रानी क्यों लगती है ,
तुमको इतनी प्यास ।

"क्यों लगती है प्यास ?

न पूछो मुझसे छुटकूलाल ।"
कहते--कहते गर्मी जी का ,
चेहरा होगया लाल ।
"सर्दी ने गुड ,गजक ,बाजरा ,
 उडद मखानी दाल ,
 तिल की टिक्की गरम मँगौडे,
 परसे भर-भर थाल ।
मैथी के चटपटे पराँठे ,
और कचौरी खस्ता ।
भजिये, आलू-बडे ,समोसे,
सब कुछ पाया सस्ता ।
इतना खाया...,इतना खाया,
पिया गया ना पानी 
अब लगती है प्यास 
तभी तो ,..पानी ,
और बस...
पानी....।"

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

मुझे धूप चाहिये


यह शीर्षक कहानी का है और कहानी संग्रह का भी जो अभी -अभी एकलव्य ( भोपाल) से प्रकाशित हुआ है । इस संग्रह में आठ कहानियाँ है । आप कहानी को पढें भी और अपनी बहुमूल्य राय भी देना न भूलें । हाँ पुस्तक एकलव्य  ई--शंकर नगर बी.डी.ए. कालोनी शिवाजी नगर भोपाल---462016 से प्राप्त की जा सकती है ।
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एक था छोटा सा बीज । एकदम गोल-मटोल ,काला-कलूटा ,और बहुत कुछ काली मिर्च जैसा ही था वह छोटा सा बीज ।अगर तुम्हें बीजों की थोडी बहुत जानकारी है तो मुझे यह बताने की जरूरत नही कि वह एक मीठे और गूदेदार पपीता का बीज था । फल खाने के बाद लापरवाही से फेंके गए बीजों में से अलग हुआ वह बीज अनचाहे मेहमान की तरह एक क्यारी में जा पडा था । उस बीज को अनचाहा मेहमान मैंने इसलिये कहा है क्योंकि उस क्यारी में अब कोई भी पौधा बढ कर पेड बनेगा यह न किसी को अनुमान था न ही उम्मीद । इसकी वजह यह थी कि क्यारी में पहले से ही काफी पेड पौधे लगे हुए थे जो बढने के लिये जी जान से कोशिश कर रहे थे ।
इनमें एक नीबू का पौधा था । उसने एक बेसब्र बच्चे की तरह ,जो हर हाल में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने की फिक्र में रहता है , अपनी टहनियाँ चारों तरफ फैला रखीं थीं । लेकिन वह अंगूर की बेल से परेशान था जिसने अपने कोमल तन्तु बढाते हुए पहले तो नीबू की टहनियों से जरा सा सहारा माँगा था पर अब हर टहनी पर उसने अपना कब्जा जमा लिया था ।
पास ही एक सन्तरा का पौधा था जिसके हौसले तो पास ही खडे अमरूद के बराबर होने के थे पर वह महीनों से वैसा का वैसा ही खडा था । उधर एक आम का पौधा भी था जो जगह न मिलने के कारण बिना एक भी टहनी निकाले सीधा बढ रहा था खजूर की तरह । उसी क्यारी में लौकी की एक बेल ने गुलाब के पौधे को बातों में उलझा कर बढने से रोक रखा था । कुल मिला कर उस क्यारी में शहर की व्यस्त सडक पर 'ट्रैफिक-जाम' जैसी दशा थी जिसमें सब एक साथ निकलना चाहते हैं पर आसानी से कोई नही निकल पाता ।
खैर मैं तो तुम्हें पपीता के उस छोटे से बीज के बारे में बताना चाहती हूँ । वह सारी मुश्किलों से अनजान ,जरा सी नमी और गरमाहट पाकर धरती फोड कर ऊपर आगया था एक पूरा पेड बनने का सपना लेकर । लेकिन ऊपर आकर उसने कल्पना के विपरीत अपने आपको पेड-पौधों के झुरमुट में घिरा पाया । बिल्कुल भीड में फँसे बच्चे की तरह । 
न तो खुली हवा थी न पत्ते फैलाने को जगह लेकिन सबसे बुरी बात यह कि धूप का एक छोटा टुकडा भी उसे नसीब नही था ।
"लेकिन धूप तो मेरे लिये बहुत जरूरी है ।"---यह सोचते हुए उसने नीबू के पत्तों को देखा जो धूप में चमकते हुए मुस्करा रहे थे ।
"जरा सी धूप मुझे भी दे दो ना"---उस नन्हे पौधे ने नीबू के पत्तों से याचना की लेकिन पत्तों ने जैसे कुछ सुना ही नही । फिर उसने अंगूर की बेल से भी कहा "ए खूबसूरत पत्तों वाली बेल ,कुछ धूप मेरे पास भी आने दो न ।"
"एकदम बेवकूफ--"-अंगूर की बेल इतरा कर बोली--"अपने हिस्से की धूप भला कोई देता है ।"
नन्हे पौधे ने इस तरह हर पौधे से धूप न मिलने की शिकायत करते हुए कुछ धूप माँगी  
पर सबका एक ही जबाब था--"इसमें हम क्या कर सकते हैं ।" 
"सब कितने बेरहम हैं"--नन्हा पौधा दुखी होगया ।
"काश कोई समझ पाता कि मुझे धूप की कितनी जरूरत है । "
"ए नन्हे पौधे ,मेरे विचार से यूँ गिडगिडाने का कोई लाभ नही है ।"--गीली मिट्टी में पनपती मनीप्लांट की बेल ने कहा--"वैसे भी माँगने पर आसानी से कुछ नही मिलता । धूप तो बिल्कुल भी नही ।"
"ओह ,तब तो मुझे अफसोस करना होगा कि उगने के लिये बहुत ही गलत जगह चुनी है मैंने ।"
"अफसोस करने की जगह तुम खुद ही धूप हासिल करने की सोचो न । किसी भी तरह ।"
कुछ मुश्किल और चुनौती भरा होने के बावजूद नन्हे पौधे को यह सुझाव पसन्द आया और धूप की कल्पना करते हुए उसने बढना शुरु किया । जल्दी ही उसके पत्ते बडे और मजबूत होने लगे । हफ्ते भर में तो वे नीबू की निचली टहनियों को छूने के मनसूबे बनाने लगे ।
"ऐसा सोचने से पहले जान लो नन्हे पौधे कि मेरे काँटे तुम्हें नुक्सान पहुँचा सकते हैं । और इसके लिये मुझे दोष मत देना ।"--नीबू के पेड ने बडे सधे हुए लहजे में कहा पर वास्तव में उसे पौधे का बढना पसन्द नही था ।
नन्हा पौधा समझ गया कि नीबू के पेड का इरादा उसे रास्ता देने का है नही सो उसने अपने तने को कुछ तिरछा किया ,पत्तों को झुकाया जैसा हम नीचे दरवाजे से गुजरते हुए करते हैं और बगल में थोडी सी जगह पाकर बढने लगा । धूप जैसे उसे बुला रही थी और वह बढा जा रहा था । उसके पत्ते पहले से बडे और खूबसूरत होगए और अंगूर की बेल के ऊपर फैल गए ।
'यह तो अंगूर की बेल के लिये नुक्सानदायक होगा '--यह कहते हुए किसी ने उसके बडे बडे पत्ते डण्ठल सहित तोड डाले ।
"मेरी परवाह तो है ही नही किसी को"--नन्हा पौधा पल भर को उदास हुआ पर अगले ही पल खुद को तसल्ली भी दे डाली---"अच्छा है ,इनके बिना बढने में ज्यादा आसानी होगी ।"
और इस तरह वह नन्हा पौधा ,जिसे अब नन्हा कहना तो नासमझी ही होगी ,हर रुकावट को पीछे छोडता ऊपर बढता रहा । पेड-पौधों और चिडियों के बीच उसकी चर्चाएं होती रहीं कि "देखो आज उसके दो पत्ते और निकल आए । ...अब उसके पत्तों ने नीबू को ढँक लिया है ..अब वह अमरूद को छूने की कोशिश में है ..अरे देखो उसके पत्ते कितने बडे होगए हैं एकदम छतरी जैसे ..।"
"इस तरह भी कोई बढ सकता है भला !"--चिडियाँ कह रहीं थीं ।
लेकिन मुझे तो भरोसा था क्योंकि वह धूप के लिये इतना उत्सुक जो था ।--मनी प्लांट की बात उस पपीता के पत्तों तक नही पहुँच सकी जो सारे पेडों के ऊपर छतरी की तरह फैले धूप में मुस्करा रहे थे ।

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

दे दो बॅाल हमारी




बॅाल हमारी दे दो अम्मा ।

बात हमारी सुनलो अम्मा।

आँगन में, या छत पर होगी ।
अबकी बार और दे दोगी ,
फिर हम कभी नहीं आएंगे ।
कसम हमारी ले लो अम्मा ।
बाल हमारी दे दो अम्मा 

मंटू है उत्पाती पक्का ।

इसने ही मारा है छक्का ।
चाहो इसके कान खींचलो,
दरवाजा तो खोलो अम्मा ।
बॅाल हमारी दे दो अम्मा 


कहती हो तुम , यहाँ न खेलो।

फिर तुम कहो कहाँ हम खेलें ।
घर छोटे हैं गलियाँ सँकरी,
अब मैदान कहाँ हैं अम्मा ।
बॅाल हमारी दे दो अम्मा ।

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

नींद हुई नौ दो ग्यारह


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बडे सबेरे ,
नीम अँधेरे ।
सपनें की बस्ती में ,
मुन्नू लगा रहे थे फेरे ।
तभी पडी कानों पर दस्तक ---
कुकडूँ..कू...,
चीं..चीं..चूँ...चुक.चुक...।
सोये अब तक !!
छोडो चादर,
देखो बाहर ,
भैया आकर ।
सोया था जो साथ घनेरा ,
मित्र अँधेरा
,गया कभी का उठ कर ।
 दबा नींद के बिस्तर ।
पंछी देखो उडे चहक कर ,
नीले अम्बर ।
कलियाँ मुस्काई हैं खिल कर  
कर आई लो सैर हवा भी,
मीलों चल कर ,
भीनी-भीनी खुशबू लेकर ।
सुना ,
कुनमुनाए मुन्नू जी 
तुनके कुछ गरमाए ।
यह भी कोई बात कि ,
चाहे जो बेवक्त जगाए ?
आँखें मलते बाहर आए ,
जो टकराईं किरणें पहली,
धूप सुनहली ,
मोहक उजली ।
मुन्नू जी थे हक्के-बक्के ,
नींद हुई नौ दो ग्यारह ,
आलस के छूटे छक्के ।