बादल भैया ,
अजब-गजब के हैं ये ढंग तुम्हारे ।
कितने रूप बदलते पल में ,
कितने रंग तुम्हारे ।
कुल्फी, सॉफ्टी,आइसक्रीम
तो कभी केक लगते हो
कभी बाल गुड़िया जैसे ही
बड़े 'फेक 'लगते हो ।
कभी हिरण ,खरगोश
कभी काले सफेद गुब्बारे ।
कभी भेड--बकरी जैसे ही
चलते बना कतारें ।
जंगल बाग पहाड़
कभी तो महल-दुमहले न्यारे ।।
भालू बन्दर शेर कभी
लगते हाथी के बच्चे
या बरखा रानी के हो तुम
मटके काले कच्चे ।
छूने से ही फूट पड़ें
फिर छूट पड़ें बौछारें ।।
कभी कपासी और कभी ,
लगते हो तीतरपंखी
कभी सुनहरे लाल कभी
हो जाते हो नारंगी ।
काजल जैसे भी तो तुम
लगते हो हमको प्यारे ।।
इस घन-श्याम के इतने रूप आपने दिखा दिये दीदी कि लगता है यह कविता न होकर एक पेण्टिंग हो!! अपनी बालकनी में बैठकर आपकी कविता के रंग देख रहा हूँ और कच्चे घड़े से टपकते पानी की फुहार अनुभव कर रहा हूँ!!
जवाब देंहटाएंआज यह कविता पढ़ी ,मन प्रफुल्लित हो गया , अनूठी कल्पनाओं ने कितने-कितने रूप रंगों से बादलों भरे आकाश को सजा दिया.प्रकृति की इस क्रीड़ा का साक्षात् कर काव्य-बद्ध कर इतने सहज रूप में सामने रख देने वाली लेखनी का (लिखनेवाली का )आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी रचना, बधाई.
जवाब देंहटाएंरचना और तस्वीर दोनो प्यारे है गिरजा जी ,शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबड़ी मजेदार कविता है ये तो....आज पढ़ रहा हूँ लेकिन सिर्फ मुस्कुरा रहा हूँ पढ़ कर :)
जवाब देंहटाएंऔर तस्वीरें भी इतनी सुन्दर हैं ! :)
वाह ..बढ़िया
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ।
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